श्रीनगर में प्रवासी मजदूर की हत्या: कश्मीर और बिहार के एक गांव के बीच का दशकों पुराना रिश्ता टूट गया
 Nidhi Jamwal |  Oct 28, 2021, 09:05 IST | 
 श्रीनगर में प्रवासी मजदूर की हत्या: कश्मीर और बिहार के एक गांव के बीच का दशकों पुराना रिश्ता टूट गया
जब 16 अक्टूबर को श्रीनगर में गोलगप्पे बेचने वाले अरविंद कुमार साह की हत्या हुई, तो बिहार के उनके परघरी गांव में 2000 किलोमीटर दूर शोक की लहर दौड़ गई। जब गांव कनेक्शन अरविंद के परिवार से मिलने उनके गांव पहुंचा तो पता चला कि लगभग 30 वर्षों से इस गांव के लोग आजीविका की तलाश में जम्मू-कश्मीर की यात्रा कर रहे हैं।
    परघरी (बांका), बिहार। अरविंद कुमार साह बमुश्किल 15 साल के थे जब वे पहली बार जम्मू-कश्मीर के श्रीनगर गए थे, जो बिहार के परघरी गांव स्थित उनके घर से लगभग 2,200 किलोमीटर दूर है।   
   
बांका जिले के बाराहाट ब्लॉक के इस गांव से एक युवा किशोर के लिए काम की तलाश में इतनी दूर एक अशांत क्षेत्र तक की दूरी तय करना असामान्य नहीं था, क्योंकि उनके ग्रामीण साथी पिछले तीन दशकों से ऐसा कर रहे हैं। कोई दिहाड़ी मजदूर तो कोई हलवाई की दुकानों पर सहायक आदि के रूप में काम करने के लिए कश्मीर गया।
   
अरविंद करीब 15 साल से श्रीनगर में गोलगप्पे बेचने का काम कर रहे थे। लेकिन 16 अक्टूबर की शाम को श्रीनगर के ईदगाह पार्क में 30 साल के अरविंद की गोली मारकर हत्या कर दी गई। उनकी मौत ने दो हजार किलोमीटर दूर उनके गांव को सदमे की लहर भेज दी, जहां अन्य प्रवासी कामगारों के परिवारों में भय का माहौल है।
   
समाचार रिपोर्टों के अनुसार पिछले दो महीनों में कश्मीर में आतंकवादियों द्वारा कम से कम 40 नागरिक मारे गए हैं, जिनमें से कई अरविंद जैसे प्रवासी श्रमिक हैं।
   
     अरविन्द साह के परिवार के सदस्य अंतिम क्रिया कर्म के संस्कार निभाते हुए।
         अरविन्द साह के परिवार के सदस्य अंतिम क्रिया कर्म के संस्कार निभाते हुए।     
     
अरविंद की हत्या के बाद कई प्रवासी श्रमिक कश्मीर से लौट आए हैं या अपने घर जा रहे हैं। ग्रामीणों का कहना है कि 16 अक्टूबर की नृशंस हत्या ने बिहार के परघरी गांव और कश्मीर के बीच के दशकों पुराने संबंधों को तोड़ दिया है।
   
   
"अपना पेट पालने के लिए गरीब मजदूर लोग कश्मीर जाते हैं। हर कोई डरा हुआ है। जबकि कई प्रवासी श्रमिक लौट आए हैं, कई अभी भी जम्मू में फंसे हुए हैं और घर आने के लिए बेताब हैं," अरविंद के चचेरे भाई रोशन कुमार साह ने कहा, जो उनके ग्यारहवीं के कार्यक्रम में शामिल होने आए थे, जब गांव कनेक्शन ने उनसे अक्टूबर को मुलाकात की थी।
   
वे आगे कहते हैं, 'एक तरफ सरकार हमें काम नहीं दे पा रही है तो दूसरी तरफ हमारे जीवन की रक्षा नहीं कर पा रही है। गरीब लोग अपने परिवार का पेट पालने और अपने बच्चों की परवरिश करने के लिए काम की तलाश में कश्मीर जाकर एक बड़ा जोखिम उठाते हैं।"
   
   "अरविंद और मैं श्रीनगर में एक ही कमरे में रहते थे और हम दोनों ही गोलगप्पे बेचने का काम करते थे। उस दिन (16 अक्टूबर को) अरविंद ईदगाह पार्क में गोलगप्पे बेचने के लिए गया था, जबकि मैं श्रीनगर के किसी अन्य मुहल्ले में घुस गया," अरविंद के बड़े भाई मंटू कुमार साह ने गाँव कनेक्शन को बताया।   
   
"शाम के लगभग साढ़े पांच बजे हमें खबर मिली कि एक गोलगप्पे बेचने वाले को गोली मार दी गई है। मैं अरविंद को फोन करता रहा लेकिन कोई जवाब नहीं आया। आधे घंटे के बाद किसी ने उसका फोन उठाया और बताया कि अरविंद अस्पताल में है और उसकी हालत गंभीर है। जब तक हम अस्पताल पहुंचते, उससे पहले ही लगभग साढ़े छह बजे अरविंद की मौत हो चुकी थी " मंटू बिना हिले-डुले हमें उस दिन की पूरी घटना बताते हैं, जो अरविंद के शरीर को घर ले आए थे।
   
     75 वर्षीय देवेंद्र कुमार साह - मृतक अरविंद के पिता।
         75 वर्षीय देवेंद्र कुमार साह - मृतक अरविंद के पिता।     
     
उनके मुताबिक इससे पहले ऐसी कोई घटना नहीं हुई थी। कोई भी प्रवासी दिहाड़ी मजदूर असुरक्षित महसूस नहीं करता था। वे कश्मीर में हमेशा अच्छी कमाई करते थे और इसलिए काम पर लौटते रहे। इसलिए करीब ढाई महीने पहले पहली बार मंटू भी अरविंद के साथ रोजी-रोटी कमाने के लिए श्रीनगर गया था।
   
   
"श्रीनगर में हम गोलगप्पे बेचकर महीने में 20 से 25 हजार कमाते थे। इस तरह की कमाई हम कहीं और नहीं कर सकते," मंटू ने कहा। "हम लोग अब बेरोजगार हो गए हैं। कोई नौकरी भी नहीं है हमारे पास " उन्होंने अफसोस जताया। लेकिन उन्होंने कसम खाई, "नहीं, अब मैं हम वापस नहीं जाएंगे।
   
"यहाँ हम एक दिन में तीन-चार सौ रुपए से अधिक नहीं कमा सकते, लेकिन कश्मीर में हम आसानी से हर दिन छह सौ रुपए कमा सकते हैं। कभी-कभी हम हजार से बारह सौ रुपए भी कमाते थे," मंटू ने कहा। "इसीलिए गाँव के गरीब लोग इस उम्मीद से कश्मीर जाते हैं कि वहाँ कुछ साल काम करके वे अपने परिवार और बच्चों के लिए पर्याप्त पैसा बचा सकते हैं। लेकिन अब हर कोई डरा हुआ है।"
   
     75 वर्षीय देवेंद्र साह और उनकी पत्नी सुनैना देवी के लिए यह भयानक रहा है। दंपति, जिनके पांच बेटे और एक बेटी थी, ने पिछले तीन महीनों में दो बेटों को खो दिया।
         75 वर्षीय देवेंद्र साह और उनकी पत्नी सुनैना देवी के लिए यह भयानक रहा है। दंपति, जिनके पांच बेटे और एक बेटी थी, ने पिछले तीन महीनों में दो बेटों को खो दिया।     
     
अरविंद की भाभी मंजू देवी कहती हैं, "अकेले हमारे गांव से बच्चों सहित कम से कम 200-250 लोग अपने परिवार के साथ काम करने के लिए कश्मीर जाते हैं।" "मेरे पति ने भी वहां कई सालों तक काम किया। शादी के लगभग दो-तीन साल बाद ही उन्हें यहां बांका में मिठाई की दुकान पर कुछ काम मिल गया तो उन्होंने यहीं काम शुरू कर दिया "मंजू ने कहा।
   
   
मंजू की शादी 16 साल पहले हुई थी और तीन महीने पहले ही उनके पति पति बबलू साह की कोरोना से मौत हो गई। पालने के लिए उनके चार बच्चे हैं - दो बेटियां और दो बेटे।
   
   75 वर्षीय देवेंद्र साह और उनकी पत्नी सुनैना देवी के लिए यह भयानक रहा है। दंपति जिनके पांच बेटे और एक बेटी थी, ने पिछले तीन महीनों में दो बेटों को खो दिया।   
   
"मेरे बड़े बेटे की कोरोना से मौत हो गई और अब मेरा चौथा बेटा अरविंद साह भी नहीं रहा। अरविंद की हत्या पर सरकार ने हमें दो लाख रुपए मुआवजे की पेशकेश की, एक कुत्ता भी मरता है तो हमें दो लाख रुपए मिलता है, दो लाख का मुआवजा दिया जाता है" देवेंद्र ने कहा। "हम दस-पंद्रह लोगों का एक बड़ा परिवार है। मैं बच्चों और पोते-पोतियों को कैसे खिलाऊंगा," उन्होंने चिंतित होते हुए कहा।
   
     
         
शोक संतप्त पिता ने शिकायत की कि उनके बड़े बेटे की दूसरी लहर में मौत के बाद परिवार को सरकार से कोई सहयोग नहीं मिला। उन्होंने कहा, "डॉक्टर ने मेरे बड़े बेटे को छूने से भी इनकार कर दिया जिसकी अस्पताल में भर्ती कराने के दौरान मौत हो गई थी।"
   
   
देवेंद्र के अनुसार उनके गाँव के अधिकांश किसान छोटे और सीमांत कृषक थे जिनका परिवार बड़ा था, इसलिए कृषि पर निर्भर रहना संभव नहीं था।
   
"मेरे पास 15 काठा भूमि है (60.5 काठा जमीन एक एकड़ होता) और पाँच बेटे हैं तो आप कल्पना कर सकते हैं कि प्रत्येक बेटे को कितना हिस्सा मिलता है! जमीन तो नाम मात्र की है। हमें मजदूरी का काम करना है और परिवार का भरण पोषण करना है।
   
अरविंद साह की मां सुनैना देवी ने गांव कनेक्शन को बताया, "अरविंद पैसे घर भेज देता था तो हम अपना घर चला पाते थे।" मां ने कहा, "हम अगले साल मार्च में अरविंद की शादी करने का प्लान बना रहे थे।"
   
मंटू कुमार के अनुसार, "कई कामगार कश्मीर से लौटे हैं, लेकिन वे मीडिया से बात करने से इनकार कर रहे हैं क्योंकि उन्हें डर है कि जब वे फिर से काम करने के लिए कश्मीर जाएंगे तो मीडिया से बात करने के लिए उन्हें मार दिया जाएगा।"
   
   मृतक अरविंद का एक अन्य भाई डबलू कुमार साह भी श्रीनगर में हलवाई का काम करता था जो दो साल पहले ही लौट आया था। धारा 370 के निरस्त होने के बाद दो जम्मू-कश्मीर ने अपना विशेष राज्य का दर्जा खो दिया है।   
   
"मेरे पति ने कई सालों तक श्रीनगर में एक मिठाई की दुकान किराए पर ली थी। मेरी शादी के बाद (नौ साल पहले), मैं भी वहां उनके साथ गई थी। अरविंद हमारे साथ रहता था। धारा (अनुच्छेद 370) हटाए जाने के बाद ही डर का माहौल बना और हम अपने गांव लौट आए लेकिन अरविंद ने अपने परिवार के लिए वहां काम करना जारी रखा" डबलू की पत्नी शिवानी साह ने गांव कनेक्शन को बताया।
   
     
         
"मेरे पति कश्मीर में आसानी से 20 से पच्चीस हजार रुपए महीना कमा लेते थे। जब से हम बांका लौटे हैं, उसने साहिबगंज में किराए पर एक और हलवाई की दुकान ली है, लेकिन कमाई न के बराबर है जबकि हमारे पास पालने के लिए तीन बच्चे हैं, "शिवानी ने कहा।
   
   
"पहले कभी डर नहीं था पर धारा 370 खत्म होने के बाद से डर हो गया था। लोगों को लगा कि बिहारी कश्मीर में जमीन खरीदेंगे और इससे डर का माहौल पैदा हो गया था और हमने सोचा कि अपने बच्चों के साथ घर लौटना सुरक्षित है, " शिवानी ने कहा, जिनकी दो बेटियां और एक बेटा है।
   
यह पूछे जाने पर कि क्या अरविंद की मृत्यु के बाद वे परिवार के किसी व्यक्ति को कश्मीर में जाकर काम करने देंगे, शिवानी ने कहा, "लगता तो नहीं है।"
   
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बांका जिले के बाराहाट ब्लॉक के इस गांव से एक युवा किशोर के लिए काम की तलाश में इतनी दूर एक अशांत क्षेत्र तक की दूरी तय करना असामान्य नहीं था, क्योंकि उनके ग्रामीण साथी पिछले तीन दशकों से ऐसा कर रहे हैं। कोई दिहाड़ी मजदूर तो कोई हलवाई की दुकानों पर सहायक आदि के रूप में काम करने के लिए कश्मीर गया।
अरविंद करीब 15 साल से श्रीनगर में गोलगप्पे बेचने का काम कर रहे थे। लेकिन 16 अक्टूबर की शाम को श्रीनगर के ईदगाह पार्क में 30 साल के अरविंद की गोली मारकर हत्या कर दी गई। उनकी मौत ने दो हजार किलोमीटर दूर उनके गांव को सदमे की लहर भेज दी, जहां अन्य प्रवासी कामगारों के परिवारों में भय का माहौल है।
समाचार रिपोर्टों के अनुसार पिछले दो महीनों में कश्मीर में आतंकवादियों द्वारा कम से कम 40 नागरिक मारे गए हैं, जिनमें से कई अरविंद जैसे प्रवासी श्रमिक हैं।
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अरविंद की हत्या के बाद कई प्रवासी श्रमिक कश्मीर से लौट आए हैं या अपने घर जा रहे हैं। ग्रामीणों का कहना है कि 16 अक्टूबर की नृशंस हत्या ने बिहार के परघरी गांव और कश्मीर के बीच के दशकों पुराने संबंधों को तोड़ दिया है।
"अपना पेट पालने के लिए गरीब मजदूर लोग कश्मीर जाते हैं। हर कोई डरा हुआ है। जबकि कई प्रवासी श्रमिक लौट आए हैं, कई अभी भी जम्मू में फंसे हुए हैं और घर आने के लिए बेताब हैं," अरविंद के चचेरे भाई रोशन कुमार साह ने कहा, जो उनके ग्यारहवीं के कार्यक्रम में शामिल होने आए थे, जब गांव कनेक्शन ने उनसे अक्टूबर को मुलाकात की थी।
वे आगे कहते हैं, 'एक तरफ सरकार हमें काम नहीं दे पा रही है तो दूसरी तरफ हमारे जीवन की रक्षा नहीं कर पा रही है। गरीब लोग अपने परिवार का पेट पालने और अपने बच्चों की परवरिश करने के लिए काम की तलाश में कश्मीर जाकर एक बड़ा जोखिम उठाते हैं।"
16 अक्टूबर को क्या हुआ था?
"शाम के लगभग साढ़े पांच बजे हमें खबर मिली कि एक गोलगप्पे बेचने वाले को गोली मार दी गई है। मैं अरविंद को फोन करता रहा लेकिन कोई जवाब नहीं आया। आधे घंटे के बाद किसी ने उसका फोन उठाया और बताया कि अरविंद अस्पताल में है और उसकी हालत गंभीर है। जब तक हम अस्पताल पहुंचते, उससे पहले ही लगभग साढ़े छह बजे अरविंद की मौत हो चुकी थी " मंटू बिना हिले-डुले हमें उस दिन की पूरी घटना बताते हैं, जो अरविंद के शरीर को घर ले आए थे।
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उनके मुताबिक इससे पहले ऐसी कोई घटना नहीं हुई थी। कोई भी प्रवासी दिहाड़ी मजदूर असुरक्षित महसूस नहीं करता था। वे कश्मीर में हमेशा अच्छी कमाई करते थे और इसलिए काम पर लौटते रहे। इसलिए करीब ढाई महीने पहले पहली बार मंटू भी अरविंद के साथ रोजी-रोटी कमाने के लिए श्रीनगर गया था।
"श्रीनगर में हम गोलगप्पे बेचकर महीने में 20 से 25 हजार कमाते थे। इस तरह की कमाई हम कहीं और नहीं कर सकते," मंटू ने कहा। "हम लोग अब बेरोजगार हो गए हैं। कोई नौकरी भी नहीं है हमारे पास " उन्होंने अफसोस जताया। लेकिन उन्होंने कसम खाई, "नहीं, अब मैं हम वापस नहीं जाएंगे।
"यहाँ हम एक दिन में तीन-चार सौ रुपए से अधिक नहीं कमा सकते, लेकिन कश्मीर में हम आसानी से हर दिन छह सौ रुपए कमा सकते हैं। कभी-कभी हम हजार से बारह सौ रुपए भी कमाते थे," मंटू ने कहा। "इसीलिए गाँव के गरीब लोग इस उम्मीद से कश्मीर जाते हैं कि वहाँ कुछ साल काम करके वे अपने परिवार और बच्चों के लिए पर्याप्त पैसा बचा सकते हैं। लेकिन अब हर कोई डरा हुआ है।"
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अरविंद की भाभी मंजू देवी कहती हैं, "अकेले हमारे गांव से बच्चों सहित कम से कम 200-250 लोग अपने परिवार के साथ काम करने के लिए कश्मीर जाते हैं।" "मेरे पति ने भी वहां कई सालों तक काम किया। शादी के लगभग दो-तीन साल बाद ही उन्हें यहां बांका में मिठाई की दुकान पर कुछ काम मिल गया तो उन्होंने यहीं काम शुरू कर दिया "मंजू ने कहा।
मंजू की शादी 16 साल पहले हुई थी और तीन महीने पहले ही उनके पति पति बबलू साह की कोरोना से मौत हो गई। पालने के लिए उनके चार बच्चे हैं - दो बेटियां और दो बेटे।
न जमीन, न रोजी-रोटी
"मेरे बड़े बेटे की कोरोना से मौत हो गई और अब मेरा चौथा बेटा अरविंद साह भी नहीं रहा। अरविंद की हत्या पर सरकार ने हमें दो लाख रुपए मुआवजे की पेशकेश की, एक कुत्ता भी मरता है तो हमें दो लाख रुपए मिलता है, दो लाख का मुआवजा दिया जाता है" देवेंद्र ने कहा। "हम दस-पंद्रह लोगों का एक बड़ा परिवार है। मैं बच्चों और पोते-पोतियों को कैसे खिलाऊंगा," उन्होंने चिंतित होते हुए कहा।
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शोक संतप्त पिता ने शिकायत की कि उनके बड़े बेटे की दूसरी लहर में मौत के बाद परिवार को सरकार से कोई सहयोग नहीं मिला। उन्होंने कहा, "डॉक्टर ने मेरे बड़े बेटे को छूने से भी इनकार कर दिया जिसकी अस्पताल में भर्ती कराने के दौरान मौत हो गई थी।"
देवेंद्र के अनुसार उनके गाँव के अधिकांश किसान छोटे और सीमांत कृषक थे जिनका परिवार बड़ा था, इसलिए कृषि पर निर्भर रहना संभव नहीं था।
"मेरे पास 15 काठा भूमि है (60.5 काठा जमीन एक एकड़ होता) और पाँच बेटे हैं तो आप कल्पना कर सकते हैं कि प्रत्येक बेटे को कितना हिस्सा मिलता है! जमीन तो नाम मात्र की है। हमें मजदूरी का काम करना है और परिवार का भरण पोषण करना है।
अरविंद साह की मां सुनैना देवी ने गांव कनेक्शन को बताया, "अरविंद पैसे घर भेज देता था तो हम अपना घर चला पाते थे।" मां ने कहा, "हम अगले साल मार्च में अरविंद की शादी करने का प्लान बना रहे थे।"
मंटू कुमार के अनुसार, "कई कामगार कश्मीर से लौटे हैं, लेकिन वे मीडिया से बात करने से इनकार कर रहे हैं क्योंकि उन्हें डर है कि जब वे फिर से काम करने के लिए कश्मीर जाएंगे तो मीडिया से बात करने के लिए उन्हें मार दिया जाएगा।"
धारा 370 का निरस्त होना
"मेरे पति ने कई सालों तक श्रीनगर में एक मिठाई की दुकान किराए पर ली थी। मेरी शादी के बाद (नौ साल पहले), मैं भी वहां उनके साथ गई थी। अरविंद हमारे साथ रहता था। धारा (अनुच्छेद 370) हटाए जाने के बाद ही डर का माहौल बना और हम अपने गांव लौट आए लेकिन अरविंद ने अपने परिवार के लिए वहां काम करना जारी रखा" डबलू की पत्नी शिवानी साह ने गांव कनेक्शन को बताया।
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"मेरे पति कश्मीर में आसानी से 20 से पच्चीस हजार रुपए महीना कमा लेते थे। जब से हम बांका लौटे हैं, उसने साहिबगंज में किराए पर एक और हलवाई की दुकान ली है, लेकिन कमाई न के बराबर है जबकि हमारे पास पालने के लिए तीन बच्चे हैं, "शिवानी ने कहा।
"पहले कभी डर नहीं था पर धारा 370 खत्म होने के बाद से डर हो गया था। लोगों को लगा कि बिहारी कश्मीर में जमीन खरीदेंगे और इससे डर का माहौल पैदा हो गया था और हमने सोचा कि अपने बच्चों के साथ घर लौटना सुरक्षित है, " शिवानी ने कहा, जिनकी दो बेटियां और एक बेटा है।
यह पूछे जाने पर कि क्या अरविंद की मृत्यु के बाद वे परिवार के किसी व्यक्ति को कश्मीर में जाकर काम करने देंगे, शिवानी ने कहा, "लगता तो नहीं है।"
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