काग़जी बर्तन की कला को दुनिया में ऐसे दिलाई राजस्थान के युवक ने नई पहचान
 Rajesh Khandelwal |  Jun 02, 2023, 07:52 IST | 
 काग़जी बर्तन की कला को दुनिया में ऐसे दिलाई राजस्थान के युवक ने नई पहचान
अलवर के युवा ओमप्रकाश गालव ने अपने हुनर से राजस्थान की परम्परागत मिट्टी कला को यूरोप में भी पहचान दिला दी है। मिट्टी के कागजी बर्तनों को बनाने में माहिर ओमप्रकाश अबतक 5 हज़ार से ज़्यादा लोगों को ये कला सिखा चुके हैं। इससे जहाँ सैकड़ों लोगों को रोज़गार मिला है वहीँ भारत की इस प्राचीन कला को बाहरी देशों के बड़े बाज़ार में सम्मान भी मिल रहा है।
    अलवर (राजस्थान)। कागज का बर्तन! सुन कर शायद बहुत से लोगों को यकीन करना मुश्किल हो, लेकिन ये हक़ीक़त है।   
   
राजस्थान की राजधानी जयपुर से करीब 172 किलोमीटर दूर अलवर का रामगढ़ अपनी इस कला से ही ब्रांड बन गया है। यहाँ के निवासी 40 साल के ओमप्रकाश गालव करीब ढाई दशक से मिट्टी के बर्तन बना रहे हैं। देश के अलग- अलग हिस्सों में करीब पाँच हज़ार लोग उनसे ये कारीगरी सीख कर अपना परिवार चला रहे हैं।
   
ओमप्रकाश को उनके इस कमाल के लिए राज्य दक्षता पुरस्कार, राष्ट्रीय हस्तशिल्प पुरस्कार और विश्व कला परिषद की ओर से 4 अंतरराष्ट्रीय पुरस्कार मिल चुके हैं। मिट्टी की सबसे छोटी और बड़ी कलाकृतियों के लिए इनका नाम यूनिक बुक ऑफ वर्ल्ड रिकॉर्ड में भी दर्ज़ है। गालव अपनी इस कला का प्रदर्शन नीदरलैंड, इंग्लैंड, स्वीडन, नेपाल और पेरिस में भी कर चुके हैं।
   
     ओमप्रकाश को उनके इस कमाल के लिए राज्य दक्षता पुरस्कार, राष्ट्रीय हस्तशिल्प पुरस्कार और विश्व कला परिषद की ओर से 4 अंतरराष्ट्रीय पुरस्कार मिल चुके हैं।
     ओमप्रकाश को उनके इस कमाल के लिए राज्य दक्षता पुरस्कार, राष्ट्रीय हस्तशिल्प पुरस्कार और विश्व कला परिषद की ओर से 4 अंतरराष्ट्रीय पुरस्कार मिल चुके हैं।     
     
ओमप्रकाश कहते हैं, "बर्तन बनाने के लिए मिट्टी में हम किसी भी तरह का कैमिकल इस्तेमाल नहीं करते हैं, हमारे बर्तन काफी हल्के होते हैं इसीलिए इन्हें कागजी बर्तन बोला (कहा) जाता है। बर्तन में मिट्टी की परत बहुत पतली होती है, जिसे कुशलता से तैयार करना होता है। फिनिसिंग और डिजाइनिंग पर खास ध्यान देना होता है। "
   
   
इनके यहाँ यह काम कई पीढिय़ों से हो रहा है। इनके परदादा पहलवान लल्लूराम, दादा सोहनलाल और पिता फतेहराम भी मिट्टी के कलात्मक सामान बनाते थे और उन्हें भी उनकी कला के लिए सम्मानित किया गया था। ओमप्रकाश की माँ हीरादेवी भी बर्तनों की डिज़ाइन करने में मदद करती हैं। उन्हें जिलास्तरीय सम्मान मिल चुका है।
   
                    शिल्पकला में पारंगत 10वीं कक्षा तक पढ़े ओमप्रकाश गालव ज़्यादातर घरेलू, साज-सज्जा और कलात्मक बर्तन बनाते हैं। इनमें खाना पकाने के बर्तन, पॉट्स, लैम्प, मूर्तियाँ, मिनिएचर, मिट्टी के गहने शामिल हैं। किसी ने अगर अपनी पसंद या डिज़ाइन से कुछ बनाने की माँग की तो वो भी बना देते हैं।   
   
   
ओमप्रकाश का परिवार पहले इन्हें घर से ही बेचता था। लेकिन अब वे उद्योग विभाग की मदद से प्रदेश या प्रदेश के बाहर लगाई जाने वाली प्रदशर्नियों में भी स्टॉल लगाकर अपने सामानों की बिक्री करते हैं। 'रामगढ़ क्ले पॉटरी' के नाम से अमेजॉन पर तो इनके बर्तन हैं ही, इसी नाम से अपनी वेबसाइट के ज़रिए भी बर्तन और सजावटी सामान बेच रहे हैं।
   
     
         
ओमप्रकाश बताते हैं कि एक ट्रॉली मिट्टी कभी 3 हज़ार तो कभी 4 हज़ार रुपए में मिलती है। वे 50 किलोमीटर के आस पास की ही मिट्टी काम में लेते हैं।
   
   
बातचीत में गालव ने गाँव कनेक्शन को बताया, "मिट्टी को पहले सुखाते हैं फिर उसे मोगरी से कूटकर बारीक होते ही छान कर अलग कर लेते हैं जिसे चूनी कहते हैं। बाकी मिट्टी को हारे (जमीन में बनाया गड्ढ़ा) में डालकर पानी में भिगों दिया जाता है। भींगने पर उसे चलनी में छाना जाता है ताकि कंकड़ अलग किए जा सकें। छना हुआ घोल गाढ़ा होने पर उसमें चुनी मिलाकर लौदा बनाया जाता है, जिसे दो दिन तक प्लास्टिक से ढक कर रखा जाता है, इससे मिट्टी के सूखे कण फूल जाते हैं। अब इस मिट्टी को काम में लेने से पहले पैरों से लोच लगाया जाता है। इसके बाद हथेली से पतली हत्थी लगाई जाती है।"
   
                    चाक पर चढ़ाने के लिए मिट्टी के छोटे-छोटे लौदे बनाए जाते हैं और फिर घूूमते चाक पर मिट्टी को दोनों हाथों के हल्के दबाव और अंगुलियों के कमाल से बर्तन का स्वरूप दिया जाता है और धागे की मदद से काटकर अलग सूखने के लिए रख देते हैं।   
   
   
ओमप्रकाश कहते हैं, "बर्तन के हल्का कठोर होने के बाद उसे चाक पर रखकर कबूली से उसकी खराद की जाती है। इससे बर्तन की परत पतली होने के साथ-साथ उसका आकार भी मनमुताबिक हो जाता हैं। इसके बाद घोटाने से घुटाई कर इन्हें चिकना कर लिया जाता है। बर्तन पर लाइनों वाली नक्काशी तो घूमते चाक पर कर ली जाती है, लेकिन बर्तन पर खुदाई का काम खींच पत्ती की मदद से किया जाता है।"
   
     
         
बर्तन में जाली कलम से काटी जाती है। खींच पत्ती, कबूली, कलम, घोटना जैसे औजार हाथ से बने होते हैं और इन्हीं की सहायता से बर्तनों को कलात्मक रूप दिया जाता है।
   
   
इसके बाद इन बर्तनों को 8 से 10 दिन छाया में सुखाया जाता है। सूखने पर इन्हें बानी (मुर्रम, पहाड़ की लाल मिट्टी) के घोल में डुबोकर निकाल लिया जाता है। इससे बर्तन का रंग लाल हो जाता है। सूखने पर हल्के गीले, मुलायम सूती कपड़े से उसकी घिसाई की जाती है। इससे बर्तन की सतह चिकनी व चमकदार हो जाती है। कुछ देर सुखाकर इन्हें भट्टी में पका लिया जाता है।्र
   
                    ओमप्रकाश की माँ हीरा देवी कहती हैं,"इतने दिनों की मेहनत के बाद अब काफी अच्छा लगता है, हमारे सामान दूसरे देशों में भी बिक रहे हैं।"   
   
   
ओमप्रकाश करीब 10 लोगों को अपने यहाँ भी रोज़गार दे रहे हैं। उनसे काम सीखने के बाद अपना काम कर रहे आंधवारी गाँव के रामप्रसाद का कहना है कि," पहले हम सिर्फ देहाती बर्तन बनाते थे, लेकिन ओमप्रकाश से ट्रेनिंग लेने के बाद सुन्दर डिज़ाइन वाले बर्तन बनाने लगा हूँ और कई शहरों में प्रदर्शनियों में हिस्सा भी लिया है।"
   
     
         
इसी तरह हकरजी सागवाड़ा के राजेश प्रजापत ओमप्रकाश से काम सीखने के बाद अपना काम कर रहे हैं। वे कहते हैं, "अब मैं खुद का काम कर रहा हूँ और अच्छा कमा लेता हूँ। मेरे यहाँ भी अब दूर-दूर से लोग बर्तन खरीदने आ रहे हैं।
   
   
शिल्पकार ओमप्रकाश गालव के यहाँ काम कर रहे चेतन और ईश्वर ने बताया कि इस काम को सीखने के बाद उनकी जिंदगी अब आसान हो गई है। परिवार की आर्थिक मदद में उनके इस हुनर की बड़ी भूमिका है।
   
ओमप्रकाश जैसे कलाकारों को उद्योग विभाग की तरफ से समय- समय पर प्रोत्साहित किया जाता रहा है। विभाग के महाप्रबंधक एम आर मीणा कहते हैं, "कलात्मक काम करने वालों को बढ़ावा देने के लिए मुख्यमंत्री लघु उद्योग प्रोत्साहन योजना के तहत 3 लाख रुपए का कर्ज़ दिया जाता है, जिसका ब्याज़ सब्सिडी के रूप में सरकार देती है। इसके अलावा प्रदेश से बाहर लगने वाले मेले या प्रदशर्नियों में शामिल होने वालों को आने-जाने का ख़र्च और स्टॉल का 50 फ़ीसदी किराया भी दिया जाता है।
   
               
राजस्थान की राजधानी जयपुर से करीब 172 किलोमीटर दूर अलवर का रामगढ़ अपनी इस कला से ही ब्रांड बन गया है। यहाँ के निवासी 40 साल के ओमप्रकाश गालव करीब ढाई दशक से मिट्टी के बर्तन बना रहे हैं। देश के अलग- अलग हिस्सों में करीब पाँच हज़ार लोग उनसे ये कारीगरी सीख कर अपना परिवार चला रहे हैं।
ओमप्रकाश को उनके इस कमाल के लिए राज्य दक्षता पुरस्कार, राष्ट्रीय हस्तशिल्प पुरस्कार और विश्व कला परिषद की ओर से 4 अंतरराष्ट्रीय पुरस्कार मिल चुके हैं। मिट्टी की सबसे छोटी और बड़ी कलाकृतियों के लिए इनका नाम यूनिक बुक ऑफ वर्ल्ड रिकॉर्ड में भी दर्ज़ है। गालव अपनी इस कला का प्रदर्शन नीदरलैंड, इंग्लैंड, स्वीडन, नेपाल और पेरिस में भी कर चुके हैं।
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ओमप्रकाश कहते हैं, "बर्तन बनाने के लिए मिट्टी में हम किसी भी तरह का कैमिकल इस्तेमाल नहीं करते हैं, हमारे बर्तन काफी हल्के होते हैं इसीलिए इन्हें कागजी बर्तन बोला (कहा) जाता है। बर्तन में मिट्टी की परत बहुत पतली होती है, जिसे कुशलता से तैयार करना होता है। फिनिसिंग और डिजाइनिंग पर खास ध्यान देना होता है। "
इनके यहाँ यह काम कई पीढिय़ों से हो रहा है। इनके परदादा पहलवान लल्लूराम, दादा सोहनलाल और पिता फतेहराम भी मिट्टी के कलात्मक सामान बनाते थे और उन्हें भी उनकी कला के लिए सम्मानित किया गया था। ओमप्रकाश की माँ हीरादेवी भी बर्तनों की डिज़ाइन करने में मदद करती हैं। उन्हें जिलास्तरीय सम्मान मिल चुका है।
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ओमप्रकाश का परिवार पहले इन्हें घर से ही बेचता था। लेकिन अब वे उद्योग विभाग की मदद से प्रदेश या प्रदेश के बाहर लगाई जाने वाली प्रदशर्नियों में भी स्टॉल लगाकर अपने सामानों की बिक्री करते हैं। 'रामगढ़ क्ले पॉटरी' के नाम से अमेजॉन पर तो इनके बर्तन हैं ही, इसी नाम से अपनी वेबसाइट के ज़रिए भी बर्तन और सजावटी सामान बेच रहे हैं।
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ओमप्रकाश बताते हैं कि एक ट्रॉली मिट्टी कभी 3 हज़ार तो कभी 4 हज़ार रुपए में मिलती है। वे 50 किलोमीटर के आस पास की ही मिट्टी काम में लेते हैं।
बातचीत में गालव ने गाँव कनेक्शन को बताया, "मिट्टी को पहले सुखाते हैं फिर उसे मोगरी से कूटकर बारीक होते ही छान कर अलग कर लेते हैं जिसे चूनी कहते हैं। बाकी मिट्टी को हारे (जमीन में बनाया गड्ढ़ा) में डालकर पानी में भिगों दिया जाता है। भींगने पर उसे चलनी में छाना जाता है ताकि कंकड़ अलग किए जा सकें। छना हुआ घोल गाढ़ा होने पर उसमें चुनी मिलाकर लौदा बनाया जाता है, जिसे दो दिन तक प्लास्टिक से ढक कर रखा जाता है, इससे मिट्टी के सूखे कण फूल जाते हैं। अब इस मिट्टी को काम में लेने से पहले पैरों से लोच लगाया जाता है। इसके बाद हथेली से पतली हत्थी लगाई जाती है।"
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ओमप्रकाश कहते हैं, "बर्तन के हल्का कठोर होने के बाद उसे चाक पर रखकर कबूली से उसकी खराद की जाती है। इससे बर्तन की परत पतली होने के साथ-साथ उसका आकार भी मनमुताबिक हो जाता हैं। इसके बाद घोटाने से घुटाई कर इन्हें चिकना कर लिया जाता है। बर्तन पर लाइनों वाली नक्काशी तो घूमते चाक पर कर ली जाती है, लेकिन बर्तन पर खुदाई का काम खींच पत्ती की मदद से किया जाता है।"
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बर्तन में जाली कलम से काटी जाती है। खींच पत्ती, कबूली, कलम, घोटना जैसे औजार हाथ से बने होते हैं और इन्हीं की सहायता से बर्तनों को कलात्मक रूप दिया जाता है।
इसके बाद इन बर्तनों को 8 से 10 दिन छाया में सुखाया जाता है। सूखने पर इन्हें बानी (मुर्रम, पहाड़ की लाल मिट्टी) के घोल में डुबोकर निकाल लिया जाता है। इससे बर्तन का रंग लाल हो जाता है। सूखने पर हल्के गीले, मुलायम सूती कपड़े से उसकी घिसाई की जाती है। इससे बर्तन की सतह चिकनी व चमकदार हो जाती है। कुछ देर सुखाकर इन्हें भट्टी में पका लिया जाता है।्र
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ओमप्रकाश करीब 10 लोगों को अपने यहाँ भी रोज़गार दे रहे हैं। उनसे काम सीखने के बाद अपना काम कर रहे आंधवारी गाँव के रामप्रसाद का कहना है कि," पहले हम सिर्फ देहाती बर्तन बनाते थे, लेकिन ओमप्रकाश से ट्रेनिंग लेने के बाद सुन्दर डिज़ाइन वाले बर्तन बनाने लगा हूँ और कई शहरों में प्रदर्शनियों में हिस्सा भी लिया है।"
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इसी तरह हकरजी सागवाड़ा के राजेश प्रजापत ओमप्रकाश से काम सीखने के बाद अपना काम कर रहे हैं। वे कहते हैं, "अब मैं खुद का काम कर रहा हूँ और अच्छा कमा लेता हूँ। मेरे यहाँ भी अब दूर-दूर से लोग बर्तन खरीदने आ रहे हैं।
शिल्पकार ओमप्रकाश गालव के यहाँ काम कर रहे चेतन और ईश्वर ने बताया कि इस काम को सीखने के बाद उनकी जिंदगी अब आसान हो गई है। परिवार की आर्थिक मदद में उनके इस हुनर की बड़ी भूमिका है।
ओमप्रकाश जैसे कलाकारों को उद्योग विभाग की तरफ से समय- समय पर प्रोत्साहित किया जाता रहा है। विभाग के महाप्रबंधक एम आर मीणा कहते हैं, "कलात्मक काम करने वालों को बढ़ावा देने के लिए मुख्यमंत्री लघु उद्योग प्रोत्साहन योजना के तहत 3 लाख रुपए का कर्ज़ दिया जाता है, जिसका ब्याज़ सब्सिडी के रूप में सरकार देती है। इसके अलावा प्रदेश से बाहर लगने वाले मेले या प्रदशर्नियों में शामिल होने वालों को आने-जाने का ख़र्च और स्टॉल का 50 फ़ीसदी किराया भी दिया जाता है।
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