"आप कहते हैं रिन्यूएबल एनर्जी की तरफ बढ़ रहे हैं, दूसरी तरफ कोयला खदानों का आवंटन कर रहे हैं विरोधाभास नहीं है?" - आलोक शुक्ला

Divendra Singh | May 03, 2024, 12:53 IST
“आप कहते हैं रिन्यूएबल एनर्जी की तरफ बढ़ रहे हैं

Highlight of the story: दुनिया भर के सात लोगों को इस साल गोल्डमैन एनवायरमेंट अवॉर्ड से सम्मानित किया गया, उनमें से एक छत्तीसगढ़ के आलोक शुक्ला भी हैं, जो पिछले कई साल से हसदेव के जंगलों को बचाने की लड़ाई लड़ रहे हैं।

छत्तीसगढ़ में हसदेव जंगलों को बचाने के लिए पिछले एक दशक से भी ज़्यादा समय से संघर्ष जारी है। इस जंगल को बचाने के लिए संघर्ष कर रही ‘हसदेव अरण्य बचाओ संघर्ष समिति’ के संस्थापक सदस्य और ‘छत्तीसगढ़ बचाओ आंदोलन’ के संयोजक आलोक शुक्ला को इस साल का ‘गोल्डमेन पुरस्कार’ मिला है। गोल्डमेन एनवायर्नमेंटल फाउंडेशन द्वारा हर साल दुनिया भर के उन कार्यकर्ताओं को गोल्डनमेन पुरस्कार दिया जाता है जो जमीनी स्तर पर पर्यावरण को बचाने के लिए काम करते हैं। आलोक शुक्ला ने गाँव कनेक्शन से अपनी यात्रा साझा की है।
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गाँव कनेक्शन: आपको इतने प्रतिष्ठित पुरस्कार से सम्मानित किया गया है, ज़्यादातर लोगों की जिज्ञासा होगी आपके हसदेव मूमेंट के बारे में जानने की; जंगल बचाने की अपनी मुहिम के बारे में बताइए?
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आलोक शुक्ला: छत्तीसगढ़ में पिछले दो वर्षों से जल जंगल ज़मीन पर समुदाय के अधिकारों को लेकर, पर्यावरण बचाने को लेकर सामाजिक न्याय के संघर्षों से मैं जुड़ा हुआ हूँ; साल 2004 में मेरा कॉलेज खत्म होने के बाद पर्यावरण को लेकर कहीं ना कहीं मन में चिंता और एक संवेदनशीलता थी, क्यों कि गाँव के परिवेश में ही मैं पला हूँ, एक खेतीहर परिवार से हूँ तो निश्चित तौर पर गाँव का परिवेश और प्रकृति के साथ जुड़ाव बचपन से ही रहा है।
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जब मैं पढ़ रहा था तो देख रहा था कि छत्तीसगढ़ में जिस तरीके से राज्य बनने के बाद जो औद्योगीकरण की प्रक्रिया चल रही है, उस की प्रक्रिया में बड़े पैमाने पर शहर के शहर प्रदूषित हो रहे हैं; तमाम गाँवों की जमीनें जा रही हैं और वहाँ तस्वीर थोड़ी सी विचलित करने वाली थी।

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गोल्डमेन एनवायर्नमेंटल फाउंडेशन द्वारा हर साल दुनिया भर के उन कार्यकर्ताओं को गोल्डनमेन पुरस्कार दिया जाता है जो जमीनी स्तर पर पर्यावरण को बचाने के लिए काम करते हैं। सभी फोटो: Goldman Environmental Prize

आदिवासी इलाकों से लगातार खबरें आ रही थी कि लोग संघर्ष कर रहे हैं; फिर मुझे लगा कि कहीं ना कहीं इस जगह हमें देखना चाहिए और क्या अपनी भूमिका निभा सकते हैं। एक दिन मुझे अवसर मिला जब दुर्ग में मैं रहता था, हसदेव नदी के निजीकरण के ख़िलाफ़ उस समय आंदोलन चल रहा था;तब मैं भी उस आंदोलन से जुड़ गया।


फिर उसी दौरान छत्तीसगढ़ के अलग-अलग जिलों में, रायगढ़ जहाँ पर व्यापक आंदोलन चल रहे थे औद्योगिक प्रदूषण को लेकर तो सभी जगह घूमना हुआ। डॉक्टर ब्रह्मदेव शर्मा जी से मिलना हुआ जो रिटायर्ड आईएस थे, जिन्होंने पूरा जीवन आदिवासी अधिकारों के लिए लगा दिया; मेधा पाटकर जी से मिलना हुआ, तो ऐसे तमाम साथियों से जब मिलना हुआ तो हमें लगा ठहर के पर्यावरण बचाने को लेकर आदिवासी समुदाय के साथ ही काम करना चाहिए और तब से फिर मैं लोगों के साथ जुड़ा हूँ और काम कर रहा हूँ।

शुरू के दिनों में जो मेरा काम था छत्तीसगढ़ में, वह नदियों के प्रदूषण को लेकर समाज के बीच में चेतना जगाना और संगठन का काम था।

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छत्तीसगढ़ के शुरुआती दौर में बड़ी गंभीर समस्या थी, यहाँ नए-नए उद्योग लग रहे थे; उस समय जो आंदोलन चल रहे थे रायपुर के आसपास चौरेगा, भीमटा, कठिया, यहाँ पर किसानों के साथ मैं लगातार संघर्ष में था। ऐतिहासिक वन अधिकार कानून आ गया था। उस दौर में जनपक्ष कानून बनाने का भी दौर था। तो चाहे वो वन अधिकार कानून हो, चाहे भूमि अधिग्रहण कानून हो, चाहे मनरेगा के अधिकार के कानून हो इनके राष्ट्रीय अभियानों के साथ भी एक जुड़ाव बना रहा।


2010 में छत्तीसगढ़ में जनवादी संघर्षों को एक मंच पर लाने के लिए हम लोगों ने छत्तीसगढ़ बचाओ आंदोलन बनाया, जिसमें विस्थापन के खिलाफ लड़ाइयाँ थी, प्रदूषण के खिलाफ लड़ाइयाँ थी, किसान आंदोलन थे, आदिवासी अधिकारों के लिए संघर्ष था, वन अधिकारों के लिए संघर्ष थे; इन सभी आंदोलनों को एकजुट करते हुए राज्य स्तर पर एक व्यापक आवाज़ कैसे उठाई जाए, या खनन के खिलाफ जारी संघर्ष को कैसे तेज़ किया जाए इसपर काम हुआ, फिर 2010 से छत्तीसगढ़ बचाव आंदोलन के तहत हमारी जिम्मेदारियाँ बढ़ीं।

क्योंकि पूरे प्रदेश के संगठन बाई संगठन इसके एलाइज थे, 2012 में सीबीएस में ही हमारे एक संयोजक मतलब एक फाउंडर मेंबर थे हीरा सिंह मरकाम जी जोकि पूर्व विधायक भी रहे; उन्होंने मुझे कहा कि भाई हसदेव इलाके में आइए, यहाँ पर बहुत सारी खनन परियोजनाएँ आने वाली हैं और बहुत जंगल जा रहा है, आप यहाँ थोड़ा संगठनात्मक और कानूनी जानकारी लोगों को दीजिए; क्योंकि लोगों को कुछ पता नहीं है।

तो 2011 में बीडी शर्मा जी और हीरा सिंह जी के साथ पहली बार उस जंगल में गया। सच में वो वाकया बताना मेरे लिए थोड़ा इमोशनल होता है कि जब मैं पहली बार हसदेव गया तो देखा इतना खूबसूरत जंगल है; हसदेव में एक नदी निकल रही है जो पूरा उसका कैचमेंट है, जिससे 4 लाख हेक्टेयर पानी जाता है, मतलब बेहद सुंदर जंगल है। वहां जाकर पता चला कि यहाँ 23 कोयला खदान प्रस्तावित हैं।

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और ये पूरी 23 की 23 कोयला खदानों में एक डेढ़ लाख हेक्टेयर जंगल कट जाएगा तो मन को काफी ठेस पहुँचा, सोचा उत्तर छत्तीसगढ़ का सबसे समृद्ध जंगल यही बचा हुआ है; अगर ये भी चला गया तो फिर छत्तीसगढ़ में कुछ बचने वाला नहीं है और उससे दुखद यह था कि जब मैं गाँव में लोगों के साथ मिला बैठा तो हर आदमी के मन में यह बात थी कि जो पीढ़ियों से यहाँ रह रहे हैं, जिनकी आजीविका संस्कृति उस जंगल से जुड़ी है उन्हें जंगल खोने का डर क्यों नहीं है?


लोग कह रहे थे हम देना तो नहीं चाहते हैं, लेकिन सरकार है कंपनियाँ हैं वो तो ले ही लेंगे हमसे। तब मुझे लगा कि अगर मैं यहाँ समुदाय के साथ उनके कानूनी अधिकारों को लेकर काम नहीं किया, इस जंगल को बचाने प्रयास नहीं किया तो फिर सामाजिक न्याय और पर्यावरण की चिंता के लिए बाकी जगह में कुछ भी करते रहो उसका कोई औचित्य नहीं होगा; तो अब मुझे जीवन का जो अगला समय है यही ठहर के काम करना चाहिए और 2012 से लेकर फिर आज तक यहीं जुड़ा हूँ।

गाँव कनेक्शन: आदिवासी समुदाय के लिए नदी, पहाड़, जंगल ही उनके घर होते हैं, और उनकी अजीविका का ज़रिया भी, लेकिन कई बार बड़ी-बड़ी कंपनियाँ उन्हें विकास के नाम का प्रलोभन देती है। ऐसे में आपने उन सबको कैसे जोड़े रखा?

आलोक शुक्ला: निश्चित तौर पर, देखिए यह एक बड़ी स्थिति है कि आदिवासी इलाकों में यह कहा जाता है कि आपको अच्छी शिक्षा चाहिए है तो खनन आएगा तो अच्छी शिक्षा मिलेगी, आपको स्कूल चाहिए तो खनन आएगा तभी मिलेगी। मुझे ये समझ में नहीं आता कि रायपुर के किसी व्यक्ति से तो कभी नहीं कहा जाता कि आप अपना घर छोड़ दोगे तो अच्छी शिक्षा, स्वास्थ्य और रोज़गार मिलेगा; लेकिन गाँव में जो आदिवासी हैं वह अपना गाँव छोड़ेंगे तभी उनको अच्छी शिक्षा स्वास्थ्य मिलेगा ?

तो फिर लोक कल्याणकारी राज्य के हिस्से वो नहीं हैं क्या? यह सबसे बड़ा एक बेसिक सवाल है। विकास के नाम पर जो माहौल बनाया जाता है यह उसका एक पहलू है। निश्चित तौर पर जब गया तो देखिए मुझे लोगों को समझाने की बहुत जरूरत नहीं पड़ी, क्योंकि मुझे ऐसा लगता है कि कोई भी व्यक्ति स्वेच्छा से अपना गाँव अपना घर अपना ज़मीन नहीं छोड़ना चाहता।

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और वह आदिवासी जो तो प्रकृति पूजक लोग हैं जो प्रकृति के साथ जीते हैं, जिनकी पीढ़ियां एक स्थाई आजीविका में रही और आने वाली कई पीढ़ियाँ गुजर जाएँगी वो यह सब छोड़ के प्रदूषण की जिंदगी में क्यों रहेंगे जहाँ गाँव का अस्तित्व ही खत्म हो जायेगा? ऐसे में मुझे नहीं लग रहा कोई आना चाहेगा, सवाल यह है कि रास्ता क्या था; जब हमने लोगों से बात करना शुरू किया तो हमने कहा कि देखिए यह आपको तय करना है कि आपको खदान चाहिए या नहीं चाहिए? लेकिन हाँ यदि आप अपना गाँव जंगल नहीं छोड़ना चाहते हैं तो इस देश का संविधान आपको मदद करता है; क्योंकि संविधान की पाँचवी अनुसूची में साफ़ कहा गया है कि बिना ग्राम सभा की सहमति के आपसे आपके जंगल ज़मीन नहीं लिए जा सकते।


2005 का वन अधिकार कानून तो आपके पूरे संसाधनों पर अधिकार को सौंपता है, तो जब हमने इन कानूनों की जानकारी दी तो लगा कि इन्हें तो कुछ पता ही नहीं है। यह कितना दुखद है कि 1996 में ऐसा कानून बना है और आज तक जिनको लाभ मिलना है उनको उस कानून की जानकारी नहीं है।

मतलब हमारे गाँव के लोगों को उन कानूनों की जानकारी जानबूझ कर नहीं दी गई, ताकि आसानी से संसाधनों की लूट जारी रह सके और यही मेरा काम था लोगों को इनकी जानकारी देना। जब लोग संगठित हुए तो यह बात ज़रूर आई कि भाई एक-एक गाँव कैसे लड़ेगा, क्योंकि हर एक गाँव में खदान है। 23 गाँव हैं आज यह गाँव जाएगा कल ये गाँव जाएगा।

तब लोगों ने तय किया कि भाई हम मिलकर पूरे हसदेव की बात करेंगे हम किसी एक गाँव, एक जंगल की बात नहीं करेंगे। यह पूरे हसदेव को बचाने की लड़ाई है। फिर यह हसदेव अरण्य बचाव संघर्ष समिति 2012 में हम लोगों ने बनाई। फिर यह संघर्ष चालू हुआ कि एक पेड़ भी कटेगा तो हसदेव के लोग लड़ेंगे और यही हमारे लिए लिए सबसे बड़ा मुद्दा रहा। हमें व्यापक समर्थन भी मिला तभी हम इतने साल से लड़ाई लड़ पा रहे हैं।

गाँव कनेक्शन: आप लोगों को लड़ाई लड़ते हुए इतने साल हो गए। इस दौरान तमाम मुश्किलें भी आईं होंगी, उनका भी कुछ ज़िक्र करिए?

आलोक शुक्ला: जी बिल्कुल, क्योंकि अभी तो संघर्ष जारी है; अभी हसदेव का एक हिस्सा सुरक्षित हुआ है, लेकिन कुछ हिस्से पर अभी भी पेड़ कटाई के खतरे हैं ; 800 दिनों से अभी भी धरना जारी है और देखिए आज के समय सिर्फ भारत क्या पूरे विश्व में देखेंगे तो पर्यावरण को बचाने को लेकर मानव अधिकारों के लिए और सामाजिक न्याय के लिए और विशेष रूप से प्राकृतिक संसाधनों को बचाने के जो संघर्ष हैं वो बहुत कठिन है।

हसदेव में स्थिति गंभीर है क्योंकि यहाँ सिर्फ कॉर्पोरेट या सरकार अकेले नहीं, दोनों साथ हैं।

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खदान राज्य सरकार को मिली है और उसने कंपनी को दी है, ऐसी कंपनी जो दुनिया की सबसे ताकतवर कंपनी है। वो तो अपने मुनाफे के लिए कुछ भी करती है; आपको खरीदने की कोशिश करना, डराने की कोशिश करना, जेल भेजने की कोशिश करना, निजी हमले करते हुए आपकी छवि को खराब करना, यह सारी चीजें पिछले 12 सालों से हम लोग झेलते आए हैं।


आपको एक उदाहरण बताऊँ साल 2017 में हमें ब्लॉक हेड क्वार्टर में रैली करनी थी, लेकिन हमें यह कहते हुए परमिशन नहीं दी गई कि धारा 144 लगी है ; पिछले चार साल से पूरे सरगुजा जिले में धारा 144 लगा रखी है। क्या सरगुजा ऐसा कोई इलाका है, जहाँ चार सालों तक धारा 144 लगी रहने चाहिए, विरोध होने के बाद 144 हटाया गया।

आप समझ सकते हैं कि कितनी चुनौतियाँ हैं, पिछले दिनों हमारे धरना स्थल को जला दिया गया; किसने जलाया ये साफ तौर पर दिख रहा है। बहुत सारी चुनौतियाँ है, जब हम रायपुर 300 किलोमीटर पदयात्रा करने की कोशिश कर रहे थे तो पूरी कोशिश थी प्रशासन की कंपनी की कि हम लोग ना निकल पाए पर यात्रा के लिए।

मैं हसदेव की महिलाओं को सलाम करता हूँ जो हर चुनौती का डटकर मुकाबला करते हुए डटी हुई हैं, संघर्ष कर रही हैं, बिना डरे बिना रुके बिना थके; मैं तो बस उनके साथ खड़ा हूँ।

गाँव कनेक्शन: अभी जैसे इतने सालों से आप लोग जंगल बचाने के लिए लड़ाई कर रहे हैं, अभी कुछ सालों से क्लाइमेट चेंज पर बात हो रही है, बड़े-बड़े कार्यक्रम हो रहे हैं, आपकी इस पर क्या राय है?

आलोक शुक्ला: देखिए यह अपने आप में एक विरोधाभासी है, निश्चित तौर पर जलवायु परिवर्तन आज के समय धरती पर जीवन को बचाने का संकट बढ़ते जा रहे हैं। जिस तरह से एक्सट्रीम क्लाइमेट बदल रहा, चाहे वो बाढ़ का खतरा हो या सूखे का ख़तरा हो।

भारत जैसा देश जो आज भी कृषि प्रधान है, जहाँ पर लोगों की आजीविका ही जंगल खेती आधारित है वहाँ पर आजीविका की खतरे में है। प्रभाव लोगों के जीवन पर पड़ रहा है; चाहे वो स्वास्थ्य पर हो या खाद्य संप्रभुता पर।

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जलवायु के परिवर्तन की सीधी मार खेती पर पड़ रही है, जलवायु परिवर्तन होता है तो जंगल से जो लघु वनोपज मिलता है, उस पर उसका असर पड़ता है। हम यह मानते हैं कि आज भी भारत का कार्बन उत्सर्जन में जो योगदान है, बाकी विकासशील देशों से कम है।


आज जब हम इंफ्रास्ट्रक्चर की बात कर रहे हैं हम अपने देश में विकास की परियोजनाओं को लागू करना चाह रहे हैं तो आज हमारे पास वो तकनीक मौजूद है। अगर कोयला अंतिम विकल्प होता तो और सारे देश का कोयला खत्म हो जाता तो क्या करते हैं? बोलते हैं देश के लिए हसदेव को उजाड़ा जा सकता हैं, देश के लिए यह कीमत चुकाई जानी चाहिए, लेकिन ऐसी स्थिति तो नहीं है?

अभी कॉप 26 में कहा गया कि हमारा जो एनर्जी की खपत है, उसका 50 प्रतिशत योगदान रिन्यूबल एनर्जी पर होगा। मतलब कि आप फॉसिल फ्यूल का उपयोग धीरे-धीरे कम करेंगे, लेकिन विरोधाभास हमारी नीतियों में दिखता है। एक तरफ आप कहते हैं कि रिन्यूबल एनर्जी की तरफ बढ़ रहे हैं, दूसरी तरफ आप लगातार कोयला खदानों का आवंटन कर रहे हैं।

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ऐसे तमाम अध्ययन हैं, वो चाहे कोल इंडिया का हो या चाहे सेंट्रल इलेक्ट्रिसिटी एजेंसी का हो, ये अध्ययन कहते हैं कि 2040 तक हमें 1500 से 1700 मिलियन टन से ज़्यादा कोयला नहीं चाहिए, मैं कह रहा हूँ कि 2000 बिलियन टन भी चाहिए, जिसमें देश में 4.5 लाख बिलियन टन कोयला देश में है। आप अगले 50 साल ही कोयला निकाल रहे हैं उसके बाद तो उपयोग बंद करना है।


आप एक लाख मिलियन टन से ज़्यादा कोयला नहीं निकाल सकते, आप प्राथमिकताएं तो तय करेंगे ना कि कहाँ से कोयला निकालेंगे कहाँ से नहीं निकालेंगे। सिर्फ हसदेव ही विकल्प है? जहाँ प्राकृतिक साल वन है, जहाँ से निकलने वाली नदी पाँच जिलों को पानी देती है, लाखों किसानों को खेती के लिए जिससे पानी मिलता है; जिसे छत्तीसगढ़ का लंग्स कहा जाता है, जो वनस्पतियों और वन्य जीवों का प्राकृतिक निवास है, उसे तो छोड़ दें।

छत्तीसगढ़ हाथियों का सबसे बड़ा इलाका है, जो बड़े संकट से जूझ रहा है। आज मानव-हाथी संघर्ष बढ़ रहा है, जितनी मौतें माओवादी हमले में नहीं हुई, उससे ज़्यादा लोग हाथियों के हमले से मारे जा रहे हैं और हाथी भी मर रहे हैं।

भारतीय वन्यजीव संस्थान जो केंद्र सरकार की अपनी संस्था है वो कहती कि यदि हसदेव में एक भी खनन परियोजना को इजाजत दी गई तो मानव हाथी संघर्ष इतना व्यापक हो जाएगा कि आप कभी इसे ठीक नहीं कर पाएंगे तो क्या ऐसी परिस्थिति में हसदेव के जंगलों को विनाश करके हम कोयला निकालेंगे।

गाँव कनेक्शन: आपके प्रयासों ने आज हसदेव आंदोलन को अंतरराष्ट्रीय स्तर पर पहुँचा दिया है, जब पहली बार पता चला कि आपको सम्मानित किया जाने वाला है तो आपके साथियों की क्या प्रतिक्रिया थी?

आलोक शुक्ला: देखिए निश्चित तौर पर जब पता चला तो जो हमारे हसदेव के साथी हैं जो लड़ रहे हैं, उनमें एक अलग ही खुशी थी; क्योंकि ये सम्मान उन्हीं का है, मैं तो बस एक माध्यम हूँ। जो आदिवासी संघर्ष से जुड़े हैं या इस आंदोलन से जुड़ा वो प्रत्येक व्यक्ति चाहे वह दिल्ली में बैठा हो, मुंबई,नागपुर या रायपुर में सभी हसदेव के लिए आवाज़ उठा रहा है।

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मुझे लगता है कि यह हर एक नागरिक के लिए सम्मान है, यह बेहद खुशी का पल था कि आज हसदेव का मुद्दा अंतरराष्ट्रीय स्तर पर पहुँचा है, पिछले 12 सालों से जो संघर्ष जारी है आज तक किसी आंदोलन को इतना व्यापक समर्थन नहीं मिला है।


आगे हमारा आंदोलन और मजबूत होगा क्योंकि। आपको जो भी समर्थन मिले आपके आंदोलन को मजबूत करने के लिए वो महत्त्वपूर्ण है। लेकिन हाँ जिम्मेदारी और जवाबदेही भी साथ बढ़ती है; इतना बड़ा सम्मान मिलता है, तो संघर्ष को और मजबूती मिल जाती है।

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