"ख़्वाहिश है मेरे बच्चे भी हिंदुस्तान के उस गाँव को जाकर देखें जहाँ से मेरे पुरखे मॉरीशस आए"
 Surendra Brijmohan |  Aug 07, 2023, 05:16 IST
“ख़्वाहिश है मेरे बच्चे भी हिंदुस्तान के उस गाँव को जाकर देखें जहाँ से मेरे पुरखे मॉरीशस आए”
Highlight of the story: मॉरीशस में सुरेंद्र बृजमोहन जाना पहचाना नाम है। देश के पहले फिल्मकार और मॉरीशस टेलीविज़न में कार्यकक्रम अधिकारी के पद से रिटायर्ड होने के बाद अब वे फ़ोटोग्राफ़ी और डाक्यूमेंट्री बनाकर ख़ुद को व्यस्त रखते हैं। भारत से उनके पुरखों (परदादा) के रिश्ते और गाँव के किस्से आज़ भी क़रीब 6 हज़ार किलोमीटर दूर अफ्रीका के इस देश में हिंदुस्तान से उन्हें जोड़े हुए है। कैसे? जानते हैं उन्हीं की ज़ुबानी।
    बहुत याद तो नहीं है अब गाँव कैसा और वहाँ कौन-कौन है, लेकिन कई पीढ़ियों से मॉरीशस में बसे हर भारतीय मूल के लोगों के दिलों में आज़ भी उनका गाँव बसता है। आज़ हम जो हिंदी या फ्रेंच -क्रियोल मिली भोजपुरी बोलते हैं उसकी बड़ी वज़ह अपने गाँव से जुड़ाव है। हम लोगों ने ख़ासकर हमारी पीढ़ी ने आज़ भी अपने गाँव या देश को घरों में ज़िंदा रखा है और ज़रूरी भी है, तभी तो बच्चे जानेंगे हम कौन हैं? कहाँ से आए और हमारी संस्कृति है क्या?   
   
18वी शताब्दी में मेरे परदादा मिलन बृजमोहन हिंदुस्तान से यहाँ मज़दूरी के लिए आए थे। उनके साथ उनके बेटे प्रसाद भी थे, जो बिहार के दानापुर इलाके के चौड़ी बाज़ार के रहने वाले थे। ये सब इसलिए मालूम है क्योंकि मेरे दादा जी के समय हमारे गाँव से साल में कभी -कभी एक दो चिट्ठी तो आ ही जाती थी।
   
    
     
     
बड़ा अच्छा समय था भाई वो, दोस्त और रिश्तेदार कुछ लिखते बोलते तो थे। आज़ तो व्हाट्सप्प का ज़माना है, फिर भी दूरियाँ है। ख़ैर... छोटे पर एक दो ख़त मैंने देखा था तो याद है सब। प्रसाद बृजमोहन का बेटा वासुदेव बृजमोहन उर्फ़ छविलाल हुए। छविलाल का बेटा चिंता मणि बृजमोहन यानी ज्ञान हुए। मैं उन्हीं का बेटा हूँ। "
   
   
मेरे दादा छविलाल मॉरीशस में सरकारी मज़दूर थे। उस ज़माने में स्कूल की बात दूर की थी। कम लोग ही पढ़ाई के लिए जा पाते थे। स्कूल भी बहुत नहीं थे । एक दो जगह पर दिख गया तो बड़ी बात। फिर भी चिंता मणि बृजमोहन यानी मेरे पिता पढ़ाई के लिए विदेश गए। अंग्रेजों का ज़माना था।
   
    
     
     
देश आज़ाद नहीं हुआ था। पढ़ाई के बाद वे सेना में भर्ती हुए। उन दिनों ज़बरन सेना में भर्ती होना पड़ता था। वहाँ चार साल तक रहे। वहाँ से आने के बाद नौकरी की तलाश शुरू हुई। एक काम मिला लेकिन बस ड्राइवर का। उसके बाद उनके दिमाग़ में विचार आया क्यों न अपना काम करें। उनका रुझान फोटोग्राफी की तरफ बढ़ा और फिल्म का काम शुरू किया। उन्हीं की विरासत को सँभाला हूँ।
   
फिल्म एडिटिंग के सिलसिले में 19 के दशक में एक दो बार चेन्नई जाना हुआ तब अपने गाँव जाने की कोशिश किया। चाहता था बिहार के दानापुर में जो परदादा जी के घर जगह को देखूँ , लोगों से मुलाक़ात करूँ, लेकिन किसी से सम्पर्क ही नहीं हो सका। यह भी नहीं पता चल सका घर कहाँ और कैसा था?
   
   
गाँव शहर में बदलता जा रहा है। नयी पीढ़ी बाहर निकल रही है। लेकिन ख़ुशी इस बात की है कि मैं हिंदुस्तान के उस गाँव का हूँ। एक बार फिर भारत जाने का मौका मिला तो बच्चों के साथ गाँव जाऊँगा। उन्हें दिखाना चाहता हूँ हम कौन और कहाँ से हैं?
   
    
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18वी शताब्दी में मेरे परदादा मिलन बृजमोहन हिंदुस्तान से यहाँ मज़दूरी के लिए आए थे। उनके साथ उनके बेटे प्रसाद भी थे, जो बिहार के दानापुर इलाके के चौड़ी बाज़ार के रहने वाले थे। ये सब इसलिए मालूम है क्योंकि मेरे दादा जी के समय हमारे गाँव से साल में कभी -कभी एक दो चिट्ठी तो आ ही जाती थी।
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बड़ा अच्छा समय था भाई वो, दोस्त और रिश्तेदार कुछ लिखते बोलते तो थे। आज़ तो व्हाट्सप्प का ज़माना है, फिर भी दूरियाँ है। ख़ैर... छोटे पर एक दो ख़त मैंने देखा था तो याद है सब। प्रसाद बृजमोहन का बेटा वासुदेव बृजमोहन उर्फ़ छविलाल हुए। छविलाल का बेटा चिंता मणि बृजमोहन यानी ज्ञान हुए। मैं उन्हीं का बेटा हूँ। "
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मेरे दादा छविलाल मॉरीशस में सरकारी मज़दूर थे। उस ज़माने में स्कूल की बात दूर की थी। कम लोग ही पढ़ाई के लिए जा पाते थे। स्कूल भी बहुत नहीं थे । एक दो जगह पर दिख गया तो बड़ी बात। फिर भी चिंता मणि बृजमोहन यानी मेरे पिता पढ़ाई के लिए विदेश गए। अंग्रेजों का ज़माना था।
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देश आज़ाद नहीं हुआ था। पढ़ाई के बाद वे सेना में भर्ती हुए। उन दिनों ज़बरन सेना में भर्ती होना पड़ता था। वहाँ चार साल तक रहे। वहाँ से आने के बाद नौकरी की तलाश शुरू हुई। एक काम मिला लेकिन बस ड्राइवर का। उसके बाद उनके दिमाग़ में विचार आया क्यों न अपना काम करें। उनका रुझान फोटोग्राफी की तरफ बढ़ा और फिल्म का काम शुरू किया। उन्हीं की विरासत को सँभाला हूँ।
फिल्म एडिटिंग के सिलसिले में 19 के दशक में एक दो बार चेन्नई जाना हुआ तब अपने गाँव जाने की कोशिश किया। चाहता था बिहार के दानापुर में जो परदादा जी के घर जगह को देखूँ , लोगों से मुलाक़ात करूँ, लेकिन किसी से सम्पर्क ही नहीं हो सका। यह भी नहीं पता चल सका घर कहाँ और कैसा था?
गाँव शहर में बदलता जा रहा है। नयी पीढ़ी बाहर निकल रही है। लेकिन ख़ुशी इस बात की है कि मैं हिंदुस्तान के उस गाँव का हूँ। एक बार फिर भारत जाने का मौका मिला तो बच्चों के साथ गाँव जाऊँगा। उन्हें दिखाना चाहता हूँ हम कौन और कहाँ से हैं?