ग्लोबल हंगर इंडेक्स में 94/107 रैंकिंग के बावजूद भारत में खाने की बर्बादी को किया जाता रहा है अनदेखा

गाँव कनेक्शन | Aug 23, 2021, 11:53 IST |
ग्लोबल हंगर इंडेक्स में 94/107 रैंकिंग के बावजूद भारत में खाने की बर्बादी को किया जाता रहा है अनदेखा
ग्लोबल हंगर इंडेक्स में 94/107 रैंकिंग के बावजूद भारत में खाने की बर्बादी को किया जाता रहा है अनदेखा
डब्ल्यूआरआई इंडिया द्वारा जारी एक रिपोर्ट के अनुसार भारत में खाने की बर्बादी और अपशिष्ट के सामाजिक, आर्थिक और पर्यावरणीय पहलुओं को काफी हद तक अनदेखा किया गया है। भारत में खाद्य नुकसान और कचरे के प्रबंधन के लिए एक रोडमैप विकसित करने की जरूरत है।
हाल ही में जारी आईपीसीसी की रिपोर्ट से इस बात की पुष्टि हो गई है कि आज पीढ़ी के साथ ही आने वाली पीढ़ियों को भी जलवायु संकट का सामना करना पड़ेगा यह रिपोर्ट ग्लोबल वार्मिंग पर मानव के प्रभाव को स्पष्ट करती है। पूरी दुनिया में प्रदूषणकारी तत्वों के उत्सर्जन का 8% हिस्सा भोजन के खराब और व्यर्थ होने की वजह से पैदा होता है।


भारत में खाद्य पदार्थों के खराब होने और उसे व्यर्थ फेंके जाने के कारण पड़ने वाले सामाजिक, पर्यावरणीय और आर्थिक प्रभावों और वर्तमान स्थितियों को समझने के लिए वर्ल्ड रिसोर्सेस इंस्टीट्यूट इंडिया (डब्ल्यूआरआई-इंडिया) और द फूड एंड लैंड यूज कोएलिशन (एफओएलयू) ने संयुक्त रूप से 'फूड लॉस एंड वेस्ट इन इंडिया: द नोन्स एंड द अननोन्स' नाम से एक स्टडी पेपर जारी किया है।

इस अध्ययन में कहा गया है कि डेटा-संचालित रणनीतियों और समाधानों के आधार पर और विविध हितधारकों के सामने आने वाली चुनौतियों को ध्यान में रखते हुए, भारत में भोजन के नुकसान और कचरे के प्रबंधन के लिए एक रोडमैप की जरूरत है। खाद्य हानि और अपशिष्ट के सभी आयामों के बारे में जागरूकता बढ़ाने और शोध करने के लिए समेकित प्रयासों की भी जरूरत है।"

भारत ग्लोबल हंगर इंडेक्स (भूख सूचकांक) में शामिल 107 देशों में से 94वें स्थान है। चार फरवरी 2021 को संयुक्त राष्ट्र पर्यावरण कार्यक्रम (UNEP) की रिपोर्ट, UN Food Waste Index Report 2021 के अनुसार भारत में सालाना प्रति व्यक्ति लगभग 50 किलो तैयार (पका हुआ खाना) खाने की बर्बादी हो रही है। वहीं अगर पूरी दुनिया की बात करें तो यह औसतन सालाना प्रति व्यक्ति 121 किलो है जिसमें से घरों बर्बाद हो खाने की हिस्सेदारी 74 किलो है।

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डब्ल्यूआरआई इंडिया की सीनियर मैनेजर मोनिका अग्रवाल ने कहा कि भारत में एक बड़ी मात्रा में भोजन कभी इस्तेमाल ही नहीं हो पाता, क्योंकि वह खेत से थाली तक पहुंचने की प्रक्रिया के दौरान बेकार हो जाता है। यह भोजन की मात्रा के मुकाबले ज्यादा बड़ा नुकसान है क्योंकि यह हमारे लोगों के स्वास्थ्य, पारिस्थितिकी, पेड़-पौधों, जानवरों, मिट्टी, पानी और जैव विविधता जैसी एक दूसरे से जुड़ी चीजों से संबंधित मामला है। भोजन के उत्पादन, उसके भंडारण, उसे लाने ले जाने, उसका प्रसंस्करण और वितरण करने तथा उसके इस्तेमाल के दौरान होने वाली उसकी बर्बादी को कम करने के लिए हमें ठोस बहुपक्षीय प्रयास करने की जरूरत है।


अध्ययन की प्रमुख बातें

भारत में अधिकतर अध्ययन फसल कटने के बाद उसमें होने वाले नुकसान की मात्रा पर केंद्रित है, न कि खराब होने वाले भोजन पर। यहां तक कि फसल कटने के बाद होने वाले नुकसान में भी भोजन के खराब होने के गुणवत्ता संबंधी पहलू नजरअंदाज ही रह जाते हैं।

हालांकि फसल कटने के बाद उसमें होने वाले नुकसान के आकलन के लिए राष्ट्रीय और उप-राष्ट्रीय स्तर पर शोध होते हैं। मगर उन तमाम अध्ययन के तथ्य परस्पर तुलना करने योग्य नहीं हैं, क्योंकि इन सभी अध्ययनों के लिए अलग-अलग मापदंड इस्तेमाल किए जाते हैं।

घरेलू स्तर पर खुदरा और सेवा कार्यप्रणाली के स्तर पर भोजन के खराब होने के आंकड़ों पर कोई भी प्रयोगसिद्ध शोध लगभग नदारद है। भोजन के खराब होने से बचाने किए जाने वाले अधिकतर प्रयास मुख्य रूप से फूड बैंक या कंपोस्टिंग द्वारा व्यर्थ खाने के प्रबंधन पर ही केंद्रित होते हैं।

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भारत में भोजन के खराब और बेकार होने के सामाजिक, आर्थिक और पर्यावरणीय पहलुओं को ज़्यादा खंगाला नहीं गया है। भोजन के खराब होने और व्यर्थ होने पर लिंग संबंधी अनुसंधान भी उपलब्ध नहीं है, और न तो प्रौद्योगिकी के सुधार में और न ही ऐसे भोजन के प्रबंधन के समाधान के लिए इन बातों को विचार के दायरे में लाया जाता है।


खाद्य पदार्थों के संरक्षण से संबंधित नीतियां मुख्य रूप से फसल कटने के बाद उसके भंडारण संबंधी ढांचे, जैसे कि कोल्ड चेन इंफ्रास्ट्रक्चर को बेहतर बनाने पर केंद्रित है।

इन बातों को ध्यान में रखते हुए इस अध्ययन में भारत में खाद्य पदार्थों के खराब होने और उन्हें व्यर्थ फेंके जाने की समस्या से निपटने के लिए एक ऐसा रोड मैप तैयार करने का सुझाव दिया गया है जो अनुसंधानिक जानकारी की बुनियाद पर तैयार रणनीतियों तथा समाधानों पर आधारित हो और उसमें विभिन्न हितधारकों के सामने आने वाली चुनौतियों को भी ध्यान में रखा जाए।

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