आपदा के मददगार: कोरोना के खौफ से अपने भी जिन शवों को हाथ नहीं लगाते, ये उनका अंतिम संस्कार करते हैं
 Arvind Shukla |  Apr 27, 2021, 14:28 IST
आपदा के मददगार: कोरोना के खौफ से अपने भी जिन शवों को हाथ नहीं लगाते
Highlight of the story: कोरोना महामारी में सिर्फ जान बचाना ही मुश्किल नहीं है। इस अदृश्य दुश्मन की चपेट में आने वाले लोगों का अंतिम संस्कार भी मुश्किल काम है। संक्रमण के खतरे के चलते कई बार परिजन शव को हाथ तक नहीं लगाते। देश में कई लोग और संस्थाएं इस महामारी में अपनी जान जोखिम में डालकर कोरोना से मरने वालों का अंतिम संस्कार कर रहीं हैं, इन्हीं में एक हैं महाराष्ट्र के लातूर जिले का ये रोटी-कपड़ा बैंक।
    "यहां कोविड-19 के हालात बहुत खराब हैं। उद्गीर जैसे छोटे से शहर में रोजाना 10-20 लोगों की मौत होती है। कोरोना का इतना खौफ है कि अक्सर परिवार वाले डेड बॉडी को हाथ नहीं लगाते। शहर तो दूर गांव में ऐसे ही हालात हैं, फिर हम लोग उनका अंतिम संस्कार करते हैं। इस साल अब तक 140 लोगों का अंतिम संस्कार किया है।" गौस शेख ने गांव कनेक्शन को बताया।   
   
   
गांव कनेक्शन ने जब पहली बार गौस शेख को फोन किया तो वो एंबुलेंस चला रहे थे, क्योंकि उन्हें एक शव को उसके गांव तक पहुंचाकर अंतिम संस्कार करना था।
   
   
कुछ घंटे बाद जब गांव कनेक्शन ने दोबारा गौस शेख (33 वर्ष) को कॉल किया तो पता चला कि गौस और उनके तमाम साथियों के पास इन दिनों दो ही मुख्य काम हैं, जो भूखे हैं उनके लिए खाने का इंतजाम करना और दूसरा ऐसे लोगों का अंतिम संस्कार करना, जिनकी कोविड या दूसरी बीमारियों से मौत हो गई है और कोई अंतिम संस्कार करने वाला नहीं या संक्रमण के डर से घर वाले हाथ नहीं लगा रहे।
   
    
   
   
गौस बताते हैं, "आपने जब फोन किया था उस वक्त उद्गीर से 12 किलोमीटर दूर कमालनगर में एक महिला (राचप्पा कुलकर्ण) का शव लेकर जा रहा था। उनका अंतिम संस्कार करना था, सिविल अस्पताल में उनकी मौत हुई थी।" गौस की संस्था का नाम सलात माइनरटीज वेलफेयर सोसायटी है, जिसमें करीब 50 सक्रिय सदस्य हैं। गौस इसके सचिव हैं।
   
   
"मेरे परिवार के 10 लोग कोविड़ की चपेट में आए थे, बाकि लोग ठीक हो गए, लेकिन दादी नहीं रहीं। उनके शव का भी अंतिम संस्कार रोटी-कपड़ा बैंक वालों ने किया। हम लोग सब क्वारिटींन थे। मैंने देखा है ये लोग शहर के अलावा गांवों और आसपास के कस्बों में अंतिम संस्कार के लिए जाते हैं।" अदिति पाटिल गांव कनेक्शन को बताती हैं। आदिति सामाजिक कार्यकर्ता हैं और लिंगायत समुदाय से तालुक रखती हैं, जहां शव को दफनाने का रिवाज हैं। हालांकि कोरोना के संक्रमण को देखते हुए सभी शवों को जलाया जा रहा है।
   
   
    
"हमारा इलाका लिंगायत और मुस्लिम आबादी बाहुल्य है और दोनों में ही शवों को दफनाया जाता था, लेकिन कोरोना के संक्रमण के चलते ज्यादातर लोग शवों को जला रहे हैं, कोविड के केस में तो कोई रिस्क नहीं लेता है।" आदिति आगे कहती हैं।
   
   
गौस शेख और उनके साथियों के पास संस्था की एंबुलेंस भी है, जो इन दिनों उद्गीर में मुफ्त सेवा दे रही है। सरकारी अस्पतालों में भर्ती मरीजों के लिए गर्म पानी और खाने का इंतजाम तो महाराष्ट्र सरकार करती है, लेकिन तीमारदार के लिए व्यवस्था नहीं है। ऐसे लोगों के लिए भी ये लोग खाने का प्रबंध करते हैं।
   
   
इतने सारे काम में काफी खर्च होता होगा, इऩ हालातों में मैनेज हो जाता है?
   
   
इस सवाल के जवाब में गौस कहते हैं, "हम दोस्तों और परिचितों का एक सर्कल है, जो अपना पैसा बेजान चीजों पर नहीं इंसानों पर खर्च करता है। न हम मस्जिद में पैसा देते हैं न मंदिर में। तो बस इसी भावना के साथ पैसा आ जाता है। हम लोगों ने पिछले साल 40 अंतिम संस्कार किए थे इस बार डेढ़ महीने में ही 140 कर चुके हैं। 2 लाख पीस कपड़े धुलवा कर और सही कराकर लोगों तक पहुंचाए हैं। 300 लोगों को रोज खाना खिलाते हैं, कभी पैसा कम नहीं पड़ता है।"
   
    
   
   
उदगीर के एक काउंसलर (निगम पार्षद) दाताजी पाटिल बताते हैं, "इस बार कोरोना के सामने सारे सिस्टम कम पड़ गए हैं। पूरे देश की तरह यहां भी ऑक्सीजन और रेमडेसिविर इंजेक्शन की कमी है। हमारे यहां तो नॉन कोविड मौत के केस भी ज्यादा हैं। जांच में कोरोना नहीं निकलता है तो सरकारी सुविधाएं भी नही मिल पाती, लेकिन परिजनों को डर रहता है, वो नहीं आ पाते फिर अंतिम संस्कार या तो नगर पालिका करती है या एनजीओ वाले। रोटी-कपड़ा बैंक वाले शहर ही नहीं गांवों में भी काम कर रहे है। जो परिवार वाले नहीं कर रहे वो ये लोग कर रहे।"
   
   
दाताजी पाटिल आगे कहते हैं, इनके काम को देखते हुए नगर पालिका ने शहर में बेघर लोगों को बनाए शेल्टर चलाने की जिम्मेदारी 3 साल के लिए इन्हें दी है।
   
   
    
गौस शेख के मुताबिक अगर सरकारी अस्पताल में किसी की मौत होती है तो पीपीई किट सरकार देती है बाकी पैसा हम लोग खर्च करते हैं, लेकिन ज्यादातर लोग अंतिम संस्कार का खर्च नहीं उठा पाते। सक्षम लोगों से पीपीई किट का पैसा भी मिल जाता है।
   
   
कोविड के हालातों पर गौस कहते हैं, इस बार कोरोना पिछले साल की अपेक्षा कई गुना ज्यादा खतरनाक है। आदमी दहशत में है और परेशान है। इसलिए हमारी कोशिश है कि कैसे भी करके मदद कर पाएं। खाना, कपड़ा के साथ मालेगांव से मंगाकर काढ़ा भी देते हैं। इस वक्त जितना कर पाए कम है। ईश्वर ने अभी जिनती शक्ति दी है, उतने से ही पूरा काम कर रहे हैं।
   
 
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गांव कनेक्शन ने जब पहली बार गौस शेख को फोन किया तो वो एंबुलेंस चला रहे थे, क्योंकि उन्हें एक शव को उसके गांव तक पहुंचाकर अंतिम संस्कार करना था।
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कुछ घंटे बाद जब गांव कनेक्शन ने दोबारा गौस शेख (33 वर्ष) को कॉल किया तो पता चला कि गौस और उनके तमाम साथियों के पास इन दिनों दो ही मुख्य काम हैं, जो भूखे हैं उनके लिए खाने का इंतजाम करना और दूसरा ऐसे लोगों का अंतिम संस्कार करना, जिनकी कोविड या दूसरी बीमारियों से मौत हो गई है और कोई अंतिम संस्कार करने वाला नहीं या संक्रमण के डर से घर वाले हाथ नहीं लगा रहे।
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गौस बताते हैं, "आपने जब फोन किया था उस वक्त उद्गीर से 12 किलोमीटर दूर कमालनगर में एक महिला (राचप्पा कुलकर्ण) का शव लेकर जा रहा था। उनका अंतिम संस्कार करना था, सिविल अस्पताल में उनकी मौत हुई थी।" गौस की संस्था का नाम सलात माइनरटीज वेलफेयर सोसायटी है, जिसमें करीब 50 सक्रिय सदस्य हैं। गौस इसके सचिव हैं।
"मेरे परिवार के 10 लोग कोविड़ की चपेट में आए थे, बाकि लोग ठीक हो गए, लेकिन दादी नहीं रहीं। उनके शव का भी अंतिम संस्कार रोटी-कपड़ा बैंक वालों ने किया। हम लोग सब क्वारिटींन थे। मैंने देखा है ये लोग शहर के अलावा गांवों और आसपास के कस्बों में अंतिम संस्कार के लिए जाते हैं।" अदिति पाटिल गांव कनेक्शन को बताती हैं। आदिति सामाजिक कार्यकर्ता हैं और लिंगायत समुदाय से तालुक रखती हैं, जहां शव को दफनाने का रिवाज हैं। हालांकि कोरोना के संक्रमण को देखते हुए सभी शवों को जलाया जा रहा है।
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"हमारा इलाका लिंगायत और मुस्लिम आबादी बाहुल्य है और दोनों में ही शवों को दफनाया जाता था, लेकिन कोरोना के संक्रमण के चलते ज्यादातर लोग शवों को जला रहे हैं, कोविड के केस में तो कोई रिस्क नहीं लेता है।" आदिति आगे कहती हैं।
गौस शेख और उनके साथियों के पास संस्था की एंबुलेंस भी है, जो इन दिनों उद्गीर में मुफ्त सेवा दे रही है। सरकारी अस्पतालों में भर्ती मरीजों के लिए गर्म पानी और खाने का इंतजाम तो महाराष्ट्र सरकार करती है, लेकिन तीमारदार के लिए व्यवस्था नहीं है। ऐसे लोगों के लिए भी ये लोग खाने का प्रबंध करते हैं।
इतने सारे काम में काफी खर्च होता होगा, इऩ हालातों में मैनेज हो जाता है?
इस सवाल के जवाब में गौस कहते हैं, "हम दोस्तों और परिचितों का एक सर्कल है, जो अपना पैसा बेजान चीजों पर नहीं इंसानों पर खर्च करता है। न हम मस्जिद में पैसा देते हैं न मंदिर में। तो बस इसी भावना के साथ पैसा आ जाता है। हम लोगों ने पिछले साल 40 अंतिम संस्कार किए थे इस बार डेढ़ महीने में ही 140 कर चुके हैं। 2 लाख पीस कपड़े धुलवा कर और सही कराकर लोगों तक पहुंचाए हैं। 300 लोगों को रोज खाना खिलाते हैं, कभी पैसा कम नहीं पड़ता है।"
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उदगीर के एक काउंसलर (निगम पार्षद) दाताजी पाटिल बताते हैं, "इस बार कोरोना के सामने सारे सिस्टम कम पड़ गए हैं। पूरे देश की तरह यहां भी ऑक्सीजन और रेमडेसिविर इंजेक्शन की कमी है। हमारे यहां तो नॉन कोविड मौत के केस भी ज्यादा हैं। जांच में कोरोना नहीं निकलता है तो सरकारी सुविधाएं भी नही मिल पाती, लेकिन परिजनों को डर रहता है, वो नहीं आ पाते फिर अंतिम संस्कार या तो नगर पालिका करती है या एनजीओ वाले। रोटी-कपड़ा बैंक वाले शहर ही नहीं गांवों में भी काम कर रहे है। जो परिवार वाले नहीं कर रहे वो ये लोग कर रहे।"
दाताजी पाटिल आगे कहते हैं, इनके काम को देखते हुए नगर पालिका ने शहर में बेघर लोगों को बनाए शेल्टर चलाने की जिम्मेदारी 3 साल के लिए इन्हें दी है।
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गौस शेख के मुताबिक अगर सरकारी अस्पताल में किसी की मौत होती है तो पीपीई किट सरकार देती है बाकी पैसा हम लोग खर्च करते हैं, लेकिन ज्यादातर लोग अंतिम संस्कार का खर्च नहीं उठा पाते। सक्षम लोगों से पीपीई किट का पैसा भी मिल जाता है।
कोविड के हालातों पर गौस कहते हैं, इस बार कोरोना पिछले साल की अपेक्षा कई गुना ज्यादा खतरनाक है। आदमी दहशत में है और परेशान है। इसलिए हमारी कोशिश है कि कैसे भी करके मदद कर पाएं। खाना, कपड़ा के साथ मालेगांव से मंगाकर काढ़ा भी देते हैं। इस वक्त जितना कर पाए कम है। ईश्वर ने अभी जिनती शक्ति दी है, उतने से ही पूरा काम कर रहे हैं।