मानवता की मिसाल है सेना का पूर्व जवान : गाय-बछड़ों, कुत्तों पर खर्च कर देता है पूरी पेंशन

Arvind Shukla | Mar 01, 2019, 06:27 IST
मानवता की मिसाल है सेना का पूर्व जवान : गाय-बछड़ों

Highlight of the story: सूरज भूषण लोहरा की जेब में हमेशा कुछ रोटियां रहती हैं जिन्हें वो गाय और कुत्तों को खिलाते रहते हैं। हर गाय, बछड़े और कुत्ते को वो किसी न किसी नाम से बुलाते हैं। कुत्तों के लिए बाकायदा थालियां हैं। भले ही घर में खुद के लिए पर्याप्त बर्तन नहीं।

चान्हों (झारखंड)। उन्हें हर महीने करीब 19 हजार रुपए की पेंशन मिलती है। डेढ़ एकड़ से ज्यादा खेत भी है। लेकिन पत्नी के पास एक साड़ी नहीं है। घर में सुविधा के नाम पर सिर्फ एक पुरानी साइकिल है। लेकिन देश के लिए दो लड़ाइयां लड़ चुके सेना के पूर्व जवान और पशु प्रेमी सूरज भूषण लोहरा को कोई मलाल नहीं। वो अपनी पूरी पेंशन और कमाई पशुओं पर खर्च कर देते हैं।
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झारखंड की राजधानी रांची से करीब 70 किलोमीटर दूर चान्हों में रहने वाले सूरज भूषण लोहरा पशु प्रेम की मिसाल हैं। वो और उनकी पत्नी मिलकर पिछले कई दशकों से 60-70 गाय और बछड़े, 15-20 कुत्तों और इनती ही मुर्गियों को पाल रहे हैं। गाय के बछड़े पूरा दूध पी सकें इसलिए वो कभी गायों को दुहते तक नहीं। इन पशुओं से उनका कोई फायदा नहीं। निस्वार्थ सेवा का ये क्रम कई दशकों से चल रहा है।
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सूरज भूषण लोहरा और उनकी पत्नी 60 गाय-बछड़ों और कुत्तों के लिए रोजाना बनाते हैं 40-50 रोटियां। फोटो- अरविंद शुक्ला
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फिर खुद को संभालते हुए कहते हैं, "लेकिन मुझे वो गाड़ी घोड़े वाला सुख नहीं चाहिए। अच्छी जिंदगी नहीं चाहिए। जब तक हैं तकलीफ उठाएंगे। हमसे किसी का दुख बर्दास्त नहीं होता। खुद मर जाएंगे, लेकिन दूसरों को दुखी नहीं देख सकते है। कई बार मेरे भी मन में आता है कि सब सुखी के लिए मरते हैं हम क्यों नहीं, लेकिन मेरा दिल कहता है, जब तक हो दूसरों की सेवा करो।"

सूरज भूषण के गांव के लोग मजाक में उनके घर को चिड़ियाघर भी कहते हैं। उनके घर में मिट्टी और खपरैल के तीन कमरे हैं। लेकिन इस दंपति के पास रहने और सोने के लिए सिर्फ एक तख्त है। जिसके एक कोने में चूल्हा और कुछ जले बर्तन रखे थे। इनके पास न तो रसोई गैस और ना ही खाना पकाने के लिए कहीं लकड़ियों का इंतजाम। जबकि उनकी पत्नी रोजाना गायों और बछड़ों के लिए रोजाना 40-50 रोटी और 2 से 3 किलो चावल बनाती हैं।

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खाना कैसे बनाती हैं? के सवाल पर सूरज भूषण की पत्नी ललिता देवी कहती हैं, "लकड़ियां नहीं हैं, फूस (धान के पुवाल) से खाना बनाते हैं। जो बनाते हैं उसी में थोड़ा हम लोग भी खा लेते हैं। कई बार वो भी नहीं बचता है।"


गोबर और मिट्टी में सने पैर, शरीर पर एक मैला-कुचैला सा कपड़ा पहनने वाली ललिता देवी के पास एक भी साड़ी नहीं है। शादी के बाद वो बहुत कम बार मायके गईं होंगी। रिश्तेदारी में कब गई थी ये भी उन्हें याद नहीं। कपड़ों और घर में सुविधाओं के सवाल पर कहती हैं, "उनके पास (पति) कभी इनते पैसे नहीं होते, सब पैसा पशुओं के चारा पानी में उड़ा देते हैं। अब तो दिन रात इन्हीं के नाम पर है।" इतना कहकर वो एक गाय की रस्सी पकड़कर उसे चारा खिलाने ले चल पड़ती हैं।

सूरज भूषण लोहरा की जेब में हमेशा कुछ रोटियां रहती हैं जिन्हें वो गाय और कुत्तों को खिलाते रहते हैं। हर गाय, बछड़े और कुत्ते को वो किसी न किसी नाम से बुलाते हैं। कुत्तों के लिए बाकायदा थालियां हैं। भले ही घर में खुद के लिए पर्याप्त बर्तन नहीं।

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सूरज भूषण और ललिता देवी मिलकर पशुओं के लिए चारे का इंतजाम करते हैं और उन्हें चराने ले जाते हैं। इतने पशुओं को संभालने के लिए उन्होंने हर चरवाहा भी रख रखा है, जिससे वो हर हफ्ते 1070 रुपए देते हैं। ये इनते पैसे हैं कि कि वो महीने में कम से कम एक बार अपना सिलेंडर भरवा लें। लेकिन उन्हें ये सब नहीं चाहिए।


उनके पड़ोसी सुखलाल उरांव कहते हैं, "सूरज जैसा आदमी पूरे झारखंड में नहीं मिलेगा। उसने अपनी पूरी जिंदगी ऐसे पशुओं के नाम कर दी, जिनसे कोई वस्ता नहीं। सरकार को चाहिए इस बुजुर्ग दंपति की कुछ मदद करे। बेचारे कुएं से पानी भरते हैं। गर्मियों में तो कई सौ मीटर दूर से इन पशुओं के लिए पानी लाते हैं।"

गांव के कुछ लोग उन्हें सनकी भी समझते हैं। उनकी नजर में वो अपना पैसा इन फालतू के पशुओं पर बर्बाद कर रहे। लेकिन गांव के तमाम लोग उन्हें परोपकारी और प्रेरणास्त्रोत मानते हैं।

उनके घर के बगल में रहने वाली चांद मुनु राई कहती हैं, "ये बूढ़ा-बूढ़ी इन पशुओं के पीछे जान देते हैं। हमारे यहां गेहूं नहीं होता लेकिन इनके लिए वो आटा खरीद कर लाते हैं। मुर्गा मुर्गियों को खुद नहीं खाते, भले ही वो मर जाएं। इनके तीनों कमरों में ये गाय बछरू ही भरे रहते हैं। जो गाय-बछड़े मर जाते हैं उनके अपने दरवाजे के बाहर ही दफना देते हैं। इन्हें जानवरों से बहुत प्यार है।'

सूरज भूषण के घर के बाहर 10 नई कब्रें बनी हैं। ये उन गाय-बछ़ड़ों की हैं जो इस साल सर्दियों में मर गईं।

"मेरे जन्म के पहले ये ही ये लोग पशुओं को पालते आ रहे हैं। मैं सिर्फ इतना जानता हूं कि मेरे दादू फौज में थे मुझे गर्व है कि मैं इनके परिवार का हूं।" 12वीं पढ़ने वाले लोहरा परिवार के अनिल लोहरा करते हैं।




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