छोटे से गांव के छात्र ने बनाया दृष्टिबाधितों के लिए अनोखा चश्मा

Sanjay Srivastava | Jan 31, 2018, 16:56 IST
छोटे से गांव के छात्र ने बनाया दृष्टिबाधितों के लिए अनोखा चश्मा

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लेखक-नम्रता सिंह

एक दृष्टिहीन महिला को रास्ता पूछते देख अनंग सोच में पड़ गए कि भीड़ भरे इलाकों में ऐसे लोगों का निकलना कितना मुश्किल होता होगा। बस, फिर क्या था अनंग ने एक ऐसा चश्मा तैयार किया जो दृष्टिबाधितों को रास्ता दिखाने में मदद कर सके।
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कक्षा ग्यारह के छात्र अनंग टाडर (16 वर्ष) ने एक ऐसा चश्मा बनाया है जो दृष्टिहीनों को रास्ता बताने में उनकी मदद कर सके। उसका नाम गॉग्स फॉर ब्लाइंड (G4B) रखा है। दृष्टिहीनों के लिए बनाया गया यह एक चश्मा है जिसको पहनकर वे बिना किसी की मदद से अपना रास्ता समझ सकेंगे। ये डिवाइस, बिना किसी स्पर्श के आस-पास की वस्तुओं को खोज लेती है।
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इस खोज के लिए अनंग को विज्ञान विभाग के राष्ट्रीय नवप्रवर्तन संस्थान (नेशनल इनोवेशन फाउंडेशन ) ने ‘डॉक्टर ए.पी.जे. अब्दुल कलाम इग्नाईट अवार्ड-2017’ से सम्मानित किया। पूर्व राष्ट्रपति प्रणव मुखर्जी ने 22 दिसम्बर 2017 को अहमदाबाद (गुजरात) में प्रदान किया।
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वर्ष 2015 के सर्वे के अनुसार, दुनिया के 36 मिलियन दृष्टिहीन लोगों में 8.8 मिलियन दृष्टिहीन सिर्फ भारत से आते हैं। भारत में इसका मुख्य कारण मोतियाबिन्द है, जो केवल ऑपरेशन से सही हो सकता है। इसके अतिरिक्त बहुत सारे लोग ऐसे होते हैं जो जन्मजात रुप से दृष्टिबाधित होते हैं। फिलहाल तो ऐसे लोगों की मदद के लिए छड़ियां ही उपलब्ध हैं।

अनंग टाडर का जी4बी (G4B) ऐसे दृष्टिबाधित के लिए एक रामबाण यंत्र साबित होगा। अभी G4B के एक प्रोटोटाइप बनाने का खर्च तकरीबन 15 हज़ार रुपए आया है पर जब इसका निर्माण व्यावसायिक स्तर पर होगा तो इसकी कीमत दो हज़ार से ढ़ाई हज़ार रुपए के आस-पास आ जाएगी।

एकोलोकेशन का सिद्धान्त

दृष्टिहीनों की सहायता के लिए बनाया गया यह यंत्र ‘एकोलोकेशन’ के सिद्धान्त पर काम करता है। एकोलोकेशन वही सिद्धान्त है जिसके आधार पर चमगादड़ रात में भी अपना शिकार ढ़ूंढ़ लेते हैं। चमगादड़ एक आवाज़ निकालते हैं जोकि रास्ते में पड़ने वाली वस्तुओं से टकराकर वापस लौट आती है। उस आवाज़ की प्रतिध्वनि (एको) सुनकर चमगादड़ उस वस्तु का आकार, आकृति और उसकी दूरी पता कर लेते हैं। यदि वह वस्तु चल रही है तो उसकी चाल का भी अन्दाजा लग जाता है। कमाल की बात ये है कि पलकें झपकाने भर की देरी में चमगादड़ इतना कुछ कर लेता है।

अनंग की इस डिवाइस में दोनों किनारों पर लगे दो अल्ट्रासोनिक सेन्सर्स के साथ बीच में एक इन्फ्रारेड सेन्सर भी लगा होता है। जब अल्ट्रासोनिक सेन्सर्स काम नहीं करते हैं, उस समय इन्फ्रारेड सेन्सर से काम लिया जाता है। रास्ते में कोई वस्तु आने पर एक बीप की आवाज़ आती है। अनंग अपनी इस नई खोज के अलावा और् भी रोबोटस व गैजेट्स बनाने का शौक़ रखते हैं। इससे पहले भी वे अन्य कई प्रतिष्ठित प्रौद्यौगिकी संस्थानों द्वारा आयोजित प्रतियोगिताओं में हिस्सा ले चुके हैं।



अनंग टाडर अरुणांचल प्रदेश के कुरूंग कुमे ज़िले के एक बहुत ही छोटे गांव से आते हैं। यह गांव राज्य के सबसे पिछड़े इलाकों में आता है। अनंग के माता-पिता खेती करते हैं। उनके माता पिता समेत आस-पास के सब लोग पढ़े-लिखे न होने के कारण ये भी नहीं जानते हैं कि अनंग क्या करते हैं पर वे बस यह जानकर खुश रहते हैं कि अनंग कुछ बहुत अच्छा काम कर रहे हैं।



अनंग बताते हैं कि, उनको बचपन से ही मेक्ट्रोनिक्स में रूचि थी। इस बात को जानने के इच्छुक रहते थे कि कोई चीज कैसे काम करती है, बस यही जानने के लिए वे उन सामानों को खोलकर देख लेते थे कि वे कैसे काम करती हैं और यही से उनको इन सबकी जानकारी मिली। थोड़े बड़े होने पर उन्होंने साइंस और इलेक्ट्रॉनिक्स के प्रोजेक्ट्स की किताबें भी पढ़नी शुरू की।





अनंग बताते हैं कि वे बचपन से कई वस्तुए बना चुके हैं पर पहचान उन्हें G4B से वर्ष 2017 में मिली। सबसे पहले गुवाहाटी में हुए रीज़नल इन्नोवेशन फेस्टिवल में G4B को पहला स्थान मिला फिर नेशनल इनोवेशन फाउंडेशन के नितिन मौर्या उन्हें संस्था की तरफ से ही आयोजित प्रतियोगिता में राष्ट्रपति भवन, नई दिल्ली ले गए और वहाँ भी वे प्रथम आए। अनंग अपनी सफलता का श्रेय नितिन को ही देते हैं। नितिन ने उनकी बहुत सहायता की है और वे ही उनके गुरु, गाइड और मेंटर हैं।



अनंग कभी पढ़ाई में बहुत अच्छे नहीं रहे हैं, उन्हें अक्सर डांट भी पड़ती है, पढ़ाई और रिजल्ट्स को लेकर। हालांकि उन्होंने अपने भविष्य को लेकर अभी कुछ खास नहीं सोचा है पर उन्हें जो भी पसंद है जैसे नई चीजें सीखना और बनाना वो उसी में लगे रहते हैं। उनका यह शौक़ और तकनीकि से लगाव ताउम्र यूँ ही जारी रहेगा।

अनंग बताते हैं कि, “मैं हर एक दिन जीता हूँ, मैं कल की चिंता नहीं करता क्योंकि कल अपना ख्याल खुद रख लेगा। और मैं अपना हर दिन कुछ न कुछ बनाने में ही लगता हूँ।”



पैसों की समस्या तो बहुत ही सामान्य है किसी भी नई खोज करने वाले और बनाने वालों के लिए | फिर अनंग जैसे बच्चों के लिए तो ये समस्या और भी ज़्यादा बढ़ जाती है जिनके माँ-बाप प्रति महीने मुश्किल से केवल 1000 रुपए ही कमा पाते हों। गांव में आय का कोई साधन न होने के कारण बचपन में अनंग के दिमाग में बहुत कुछ बनाने का जो भी विचार आया वो सब उनके दिमाग के नीचे ही धरा रह गया।

प्रोजेक्ट्स बनाने के लिए पैसे कहां से मिलते हैं तो अनंग बताते हैं कि रिश्तेदार जो कुछ दे देते हैं वो पैसे और अधिकतर तो वे टेक्निकल इवेंट्स में हिस्सा लेकर खुद ही इसकी व्यवस्था कर लेते हैं।



इन प्रतियोगिताएं में हिस्सा लेने और उसमें पहला स्थान पाने के लिए अनंग 2-3 रातें बिना सोये गुज़ार देते हैं क्योंकि वे जानते हैं कि अगर वह पहले स्थान पर नहीं आए तो उनको कोई इनाम नहीं मिलेगा और फिर आगे कुछ बनाने के लिए वे पैसों का इंतजाम कैसे करेंगे। उन्हें आईआईटी और एनआईटी सरीखे देश के प्रतिष्ठित तकनीकी संस्स्थानों में आयोजित प्रतियोगिताएं में भी कई बार पहला स्थान मिला है। फिलहाल अनंग को कोई स्कालरशिप नहीं मिल रही है।

“ज़िन्दगी से आप क्या चाहते हैं” इस सवाल के जवाब में अनंग कहते हैं “मैं दुनिया को रहने योग्य एक बेहतर जगह बनाना चाहता हूँ।”

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