आदिवासी समुदाय पर होने वाले अन्याय के खिलाफ प्रधान बनकर उठाई आवाज़

Neetu Singh | Jun 21, 2017, 20:09 IST
आदिवासी समुदाय पर होने वाले अन्याय के खिलाफ प्रधान बनकर उठाई आवाज़

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स्वयं प्रोजेक्ट डेस्क

चित्रकूट। जिले में कोल आदिवासी समुदाय की संजो कोल (55वर्ष) का सफ़र उपेक्षित समुदाय के व्यक्ति से लेकर आदिवासी परिवारों के सामाजिक एवं राजनीतिक न्याय के योद्धा की एक गाथा का रहा है।
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पुरुष वर्चस्व क्षेत्र में आदिवासी समुदाय पर होने वाले अन्याय के खिलाफ संघर्ष करने और पंचायत में अच्छा काम करने के लिए के लिए संजो को वर्ष 2010 में भारत सरकार ने उत्तर प्रदेश की पहली
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महिला प्रधान के रूप में सम्मानित किया गया था। महिला समाख्या से जुड़कर इन्होंने पढ़ना-लिखना सीखा और सशक्त होकर अपनी आवाज बुलंद की।



जिले के घने जंगलों के बीच में स्थित गाँव गिदुर्हा की मूल रूप से रहने वाली संजो ने प्रधानी चलाने के लिए अपने बाल कटवा लिए और कुर्ता पैजामा पहन लिया। पुरुष पहनावा, कटे बाल, मोटर साइकिल और ट्रैक्टर चलाने वाली संजो अपने गाँव की दस वर्ष तक प्रधान रहीं। इस दौरान इन्होंने वंचित आदिवासियों की आवाज़ बनकर उन्हें उनका हक दिलाया। इसके साथ ही डकैतों की तमाम धमकियों के बाद भी लोगों के हक के लिए लड़ती रहीं। अपने कार्यकाल में अस्सी दलित और तमाम आदिवासी परिवारों को जमीन के पट्टे दिलाए। वहीं 172 परिवारों को आवासीय प्लाट और बुजुर्गों को पेंशन मुहैया कराई।
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संजो कोल ने अपनी न्याय पंचायत को शिक्षा, स्वास्थ्य, और तमाम सरकारी योजनाओं को क्रियान्वन के साथ ही लोक कलाओं की रक्षा और उन्हें बढ़ावा देने में भी महत्वपूर्ण भूमिका निभाई। कई दशक पहले कोल आदिवासी के कई परिवार बंधुआ मजदूरों की हालत में काम करते थे। संजो कोल भी एक ऐसे ही परिवार में बड़ी हुई हैं। दस्यु प्रभावित इलाके में असुरक्षा के डर से संजो ने कई रातें गाँव के बहार भले ही गुजारी हों पर वो अपने इरादों से कभी डिगी नहीं, ये एक अच्छी लोक गायिका भी हैं।



गाँव के लोगों से प्रेम से मिलती है.. संजो कोल अपने 10 वर्षीय प्रधानी का अनुभव साझा करते हुए बताती हैं, “महिला प्रधान का चुनाव में खड़ा होना यहाँ के सामन्तवादी समाज को मंजूर नहीं था। साजिशों के तहत मतदाता सूची से हमारा नाम हटवा दिया गया। तमाम अधिकारियों के दरवाजे खटखटाये तब कहीं जाकर नामंकन से सिर्फ एक दिन पहले मतदाता सूची में नाम दर्ज करा पाई।”

वो आगे बताती हैं, “मै बंधुआ प्रधानों की तरह किसी के इशारे पर काम नहीं करना चाहती थी। अपनी पंचायत में स्वतंत्र रूप से काम करना मेरा मकसद था पर ये सामंत समाज को मंजूर नहीं था। तमाम धमकियों के बावजूद मैं डरी नहीं और मैंने अपने मन मुताबिक ही काम किया।”

संजो कोल अपनी जिन्दगी के संघर्षों के बारे में बड़ी ही सहजता के साथ बताती हैं, “मेरी शादी 12 साल में हो गयी थी। शादी के सात-आठ साल ही पति के साथ रहे, एक बेटी के जन्म के बाद हमारे और उनके वैचारिक मतभेद हुए और हम हमेशा के लिए अलग हो गये।”

वो आगे बताती हैं, “इस घटना के बाद हम अपने मायके रहने लगे। घर पर परचून की दुकान थी सामान लेने के लिए जंगलों के रास्ते साइकिल चलाकर जाना पड़ता था। एक महिला होने के नाते साड़ी पहनकर साइकिल चलाना मुश्किल था, इसलिए कुर्ता पैजामा पहना। जिन्दगी के खर्चे चलाने के लिए खेतों में ट्रैक्टर चलाया।”



साईकिल दौड़ती है संजो वर्तमान समय में ये चित्रकूट जिला मुख्यालय से 30 किलोमीटर दूर पूरब दिशा में मानिकपुर के शिवनगर गाँव में अपना खुद का मकान बनाकर अपनी नातिनों के साथ रहने लगी हैं।उम्र के इस पड़ाव में भी काम को लेकर इनके जोश और जुझारूपन में अभी कोई कमी नहीं आयी है।

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