Eco-Friendly Rakhi: जलकुंभी से रक्षाबंधन पर पर्यावरण बचाने की नई पहल
 Gaon Connection |  Aug 08, 2025, 16:12 IST | 
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सीतापुर की महिलाओं ने जलकुंभी से पर्यावरण-अनुकूल राखियां बनाकर आत्मनिर्भरता की मिसाल पेश की है। यह पहल न केवल भाई-बहन के प्रेम के त्योहार रक्षाबंधन को एक नया आयाम देती है, बल्कि प्रकृति संरक्षण और ग्रामीण महिला सशक्तिकरण का भी प्रतीक है।
    गाँवों के तालाबों-झील में लहराती जलकुंभी, जिसे कभी गाँव वाले पानी का दुश्मन दुश्मन मानते थे, आज उम्मीद और आत्मनिर्भरता की नयी कहानी बुन रही है। यह कहानी है उन महिलाओं की, जिन्होंने इस ‘अनचाहे पौधे’ को अपनी रोज़ी-रोटी और आत्मसम्मान का साधन बना लिया।   
   
कृषि विज्ञान केंद्र-2, कटिया, सीतापुर की वैज्ञानिक डॉ. रीमा बताती हैं,"पानी में तेजी से फैलने वाली जलकुंभी आमतौर पर जलधाराओं को बाधित कर नुकसान पहुंचाती है। लेकिन तीन साल पहले केंद्र ने इसके बहुउपयोगी उत्पादों पर प्रशिक्षण और जनजागरूकता अभियान शुरू किया। नतीजा यह हुआ कि जहाँ लोग इसे उखाड़ फेंकते थे, वहीं अब इसे इकट्ठा कर सुंदर, पूरी तरह जैविक और पर्यावरण-अनुकूल राखियां बनाई जा रही हैं।
   
राखी में बसी प्रकृति और परंपरा की खुशबू
   
ये राखियां न सिर्फ रक्षाबंधन पर भाई की कलाई पर बंधने वाला प्रेम का प्रतीक हैं, बल्कि धरती मां को भी सुरक्षा का वचन देती हैं। इनमें न प्लास्टिक है, न कृत्रिम धागा- सिर्फ प्राकृतिक तंतु, जो धरती में खुद घुलकर मिट्टी को समृद्ध कर देते हैं। देखने में यह पारंपरिक, सुंदर और सादगी से भरी होती हैं, और सबसे बड़ी बात- इनसे कोई पर्यावरणीय नुकसान नहीं होता।
   
   आरजू स्वयं सहायता समूह की नाज़िया खातून इन राखियों का निर्माण करती हैं। उनके साथ सुनीता, किरण, संगीता, पूनम देवी, रामरानी, बीरजाना, रिंकी देवी, मुन्नी जैसी कई महिलाएं भी जुड़ चुकी हैं। जलकुंभी उनके लिए मुफ्त कच्चा माल है, जिससे कम लागत में तैयार राखियां बाज़ार में अच्छी कीमत पाती हैं।
   आरजू स्वयं सहायता समूह की नाज़िया खातून इन राखियों का निर्माण करती हैं। उनके साथ सुनीता, किरण, संगीता, पूनम देवी, रामरानी, बीरजाना, रिंकी देवी, मुन्नी जैसी कई महिलाएं भी जुड़ चुकी हैं। जलकुंभी उनके लिए मुफ्त कच्चा माल है, जिससे कम लागत में तैयार राखियां बाज़ार में अच्छी कीमत पाती हैं।   
   
राखी बनाने की सरल लेकिन रचनात्मक प्रक्रिया
   
सबसे पहले जलकुंभी के तनों को इकट्ठा कर सुखाया जाता है। फिर इन सूखे तनों को छीलकर पतली रस्सियों में गूंथा जाता है। रंग-बिरंगे प्राकृतिक रंगों से सजाने के बाद मोती, फूल और रंगीन धागों से इन्हें और आकर्षक बनाया जाता है। यही कच्ची रस्सियां धीरे-धीरे एक खूबसूरत राखी का रूप ले लेती हैं।
   
राखी से रची नाजिया की सफलता गाथा
   
सीतापुर की नाजिया खातून इस बदलाव की जीवंत मिसाल हैं। पति जमीर खान के साथ जीवन की जिम्मेदारियों को संभालते हुए उन्होंने कृषि विज्ञान केंद्र से प्रशिक्षण लिया और जलकुंभी व जूट से हस्तशिल्प उत्पाद बनाना शुरू किया। उन्होंने ‘आरजू स्वयं सहायता समूह’ बनाया और ‘कुंभी’ नाम से अपने उत्पादों की बिक्री शुरू की। नाजिया न सिर्फ उद्यमी बनीं, बल्कि राष्ट्रीय ग्रामीण आजीविका मिशन (NRLM) के साथ मास्टर ट्रेनर के रूप में भी जुड़ीं, ताकि और महिलाएं भी इस कला से जुड़ सकें।
   
   आज उनके इस छोटे से उद्यम ने उनके छह बच्चों की पढ़ाई, परिवार की आर्थिक स्थिरता और गांव की कई महिलाओं की आजीविका सुनिश्चित की है। उनके पति का अटूट साथ उन्हें हर चुनौती में आगे बढ़ने की ताकत देता है।
   आज उनके इस छोटे से उद्यम ने उनके छह बच्चों की पढ़ाई, परिवार की आर्थिक स्थिरता और गांव की कई महिलाओं की आजीविका सुनिश्चित की है। उनके पति का अटूट साथ उन्हें हर चुनौती में आगे बढ़ने की ताकत देता है।   
   
राखी जो सिर्फ रिश्ते नहीं, जीवन भी जोड़ती है
   
जलकुंभी से बनी राखियां अब गांव की गलियों से निकलकर शहरों और ऑनलाइन बाजार तक पहुंच रही हैं। ये न केवल त्यौहार की मिठास बढ़ाती हैं, बल्कि पर्यावरण के प्रति जिम्मेदारी निभाने का संदेश भी देती हैं।
   
                  
कृषि विज्ञान केंद्र-2, कटिया, सीतापुर की वैज्ञानिक डॉ. रीमा बताती हैं,"पानी में तेजी से फैलने वाली जलकुंभी आमतौर पर जलधाराओं को बाधित कर नुकसान पहुंचाती है। लेकिन तीन साल पहले केंद्र ने इसके बहुउपयोगी उत्पादों पर प्रशिक्षण और जनजागरूकता अभियान शुरू किया। नतीजा यह हुआ कि जहाँ लोग इसे उखाड़ फेंकते थे, वहीं अब इसे इकट्ठा कर सुंदर, पूरी तरह जैविक और पर्यावरण-अनुकूल राखियां बनाई जा रही हैं।
राखी में बसी प्रकृति और परंपरा की खुशबू
ये राखियां न सिर्फ रक्षाबंधन पर भाई की कलाई पर बंधने वाला प्रेम का प्रतीक हैं, बल्कि धरती मां को भी सुरक्षा का वचन देती हैं। इनमें न प्लास्टिक है, न कृत्रिम धागा- सिर्फ प्राकृतिक तंतु, जो धरती में खुद घुलकर मिट्टी को समृद्ध कर देते हैं। देखने में यह पारंपरिक, सुंदर और सादगी से भरी होती हैं, और सबसे बड़ी बात- इनसे कोई पर्यावरणीय नुकसान नहीं होता।
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राखी बनाने की सरल लेकिन रचनात्मक प्रक्रिया
सबसे पहले जलकुंभी के तनों को इकट्ठा कर सुखाया जाता है। फिर इन सूखे तनों को छीलकर पतली रस्सियों में गूंथा जाता है। रंग-बिरंगे प्राकृतिक रंगों से सजाने के बाद मोती, फूल और रंगीन धागों से इन्हें और आकर्षक बनाया जाता है। यही कच्ची रस्सियां धीरे-धीरे एक खूबसूरत राखी का रूप ले लेती हैं।
राखी से रची नाजिया की सफलता गाथा
सीतापुर की नाजिया खातून इस बदलाव की जीवंत मिसाल हैं। पति जमीर खान के साथ जीवन की जिम्मेदारियों को संभालते हुए उन्होंने कृषि विज्ञान केंद्र से प्रशिक्षण लिया और जलकुंभी व जूट से हस्तशिल्प उत्पाद बनाना शुरू किया। उन्होंने ‘आरजू स्वयं सहायता समूह’ बनाया और ‘कुंभी’ नाम से अपने उत्पादों की बिक्री शुरू की। नाजिया न सिर्फ उद्यमी बनीं, बल्कि राष्ट्रीय ग्रामीण आजीविका मिशन (NRLM) के साथ मास्टर ट्रेनर के रूप में भी जुड़ीं, ताकि और महिलाएं भी इस कला से जुड़ सकें।
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राखी जो सिर्फ रिश्ते नहीं, जीवन भी जोड़ती है
जलकुंभी से बनी राखियां अब गांव की गलियों से निकलकर शहरों और ऑनलाइन बाजार तक पहुंच रही हैं। ये न केवल त्यौहार की मिठास बढ़ाती हैं, बल्कि पर्यावरण के प्रति जिम्मेदारी निभाने का संदेश भी देती हैं।