मलिहाबाद से क्यों गायब हो रहीं हैं दुर्लभ किस्मों के आम की विरासत

Gaon Connection | Jun 17, 2023, 10:58 IST |
मलिहाबाद से क्यों गायब हो रहीं हैं दुर्लभ किस्मों के आम की विरासत
आम के लिए मशहूर मलिहाबाद के कुछ पुराने बागों में अभी भी गिलास, जौहरी सफेदा जैसी दुर्लभ किस्में हैं, लेकिन इनमें से ज़्यादातर के पेड़ गायब हो गए हैं। रसपुनिया, याकुती, भूदिया, रस भंडार जैसी दुर्लभ किस्में तो अब इक्का दुक्का दिख जाए तो बड़ी बात है। क्या है वजह इन दुर्लभ किस्मों के गायब होने की ? बता रहे हैं केंद्रीय उपोष्ण बागवानी सँस्थान, लखनऊ के पूर्व निदेशक डॉ शैलेंद्र राजन -
आम की बात की जाए तो सबसे पहले दशहरी, लंगड़ा और अल्फांसो जैसी किस्मों का नाम ही ज़ुबान पर आता है, लेकिन क्या कभी आपने गिलास, जौहरी सफेदा, रसपुनिया, याकुती, भूदिया, रस भंडार जैसी दुर्लभ किस्मों का नाम सुना है। जबकि इन दिनों बाज़ार में आपको हर तरफ आम ही दिखाई देंगे।

लखनऊ का आम बाज़ार अपनी विविधता के लिए प्रसिद्ध है। यह बाज़ार प्रतिवर्ष लोकप्रिय आमों की एक प्रदर्शनी करता है। सीजन की शुरुआत महाराष्ट्र से लाए गए महँगे अल्फांसो से होती है। हालाँकि यह आम कुछ ही दुकानों में उपलब्ध रहता है। इसके बाद बंगनापल्ली और सुवनरेखा भरपूर मात्रा में लखनऊ के बाजार में आते हैं, जो एक महीने से अधिक समय तक बाज़ारों की शोभा बढ़ाते हैं। फिर बारी आती है बाज़ार में दशहरी, लंगड़ा, चौसा और लखनऊ सफेदा जैसी प्रसिद्ध किस्मों की ।

ये किस्में बाज़ार पर हावी हैं। यह ध्यान रखना जरुरी है कि लखनऊ में, सीमित मात्रा में होने के बावजूद, आम की कई अन्य स्थानीय किस्में अभी भी आसपास के क्षेत्र में लाकर बेची जाती हैं। लखनऊ के आम प्रेमी इन विशेष किस्मों का इंतज़ार करते हैं।

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हाल के वर्षों में, बाज़ार में फिलहाल इन अनोखे स्थानीय आमों की उपलब्धता में भारी गिरावट देखी जा रही है। ग्राफ्टेड (कलमी) व्यावसायिक किस्मों के प्रभुत्व ने मलिहाबाद, बाराबंकी, सीतापुर के पुराने आम के बागों की दुर्लभ किस्मों के लिए अपनी उपस्थिति लखनऊ के बाजार में दर्ज कराने के लिए बहुत कम जगह छोड़ी है। वाणिज्यिक किस्मों के इस वर्चस्व ने इन अनोखे आमों की घटती उपलब्धता को और प्रभावित किया है।


अपनी विविध आम किस्मों के लिए प्रसिद्ध क्षेत्र मलिहाबाद अब अपनी 200 साल पुरानी आम किस्मों की संपदा को खोने के जोखिम का सामना कर रहा है। यह खतरा शहरीकरण, दशहरी जैसी व्यावसायिक किस्मों की प्रमुखता और दुर्लभ आमों में बागवानी और व्यापारियों की घटती दिलचस्पी से उपजा है। अतीत में, आम की सैकड़ों किस्मों की खेती पूरी तरह जुनून और उत्साह के साथ की जाती थी, जिसमें बिना किसी व्यावसायिक मकसद के अक्सर दोस्तों और रिश्तेदारों के बीच अपने फलों का आदान-प्रदान होता था।

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प्रभावशाली लोंगों द्वारा आयोजित आम की दावतों ने इन दुर्लभ किस्मों को संरक्षित करने में महत्वपूर्ण भूमिका निभाई। हालाँकि , जैसे-जैसे आज की पीढ़ियाँ शहरों में चली गई, आम की इन अनोखी किस्मों का स्वामित्व, लगाव और प्रशंसा धीरे-धीरे कम होती गई।

आम की खेती के बदलते हालत में अब आर्थिक रूप से समृद्ध व्यक्ति और संसाधन-विवश किसान दोनों शामिल हैं। कई लोगों के लिए, उनकी आजीविका आम के बागों से होने वाली आय पर निर्भर करती है। जैसे-जैसे ज़मीन की लागत बढ़ती जा रही है, किसान आम की अनूठी किस्मों को उगाने की बजाय अपनी खेती की ज़मीन को बेचने का विकल्प चुनते हैं।

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नतीजतन, सदी पुराने पेड़ गायब हो गए हैं, और बीजू पौधों के नए बाग लगाने की एक बार की आम प्रथा दुर्लभ हो गई है। बड़े जमींदार पहले बीजू बगीचे के लिए जगह देते थे जहाँ पौधे विकसित होते और फल देते थे। इसके परिणामस्वरूप, अनगिनत आम किस्में उत्पन्न हुईं। इन किस्मों का विकास और संरक्षण न केवल व्यापारिक मूल्य के लिए ही था, बल्कि इनकी अनूठी विशेषताओं के लिए भी उन्हें सराहना मिली।


इन आम किस्मों की मिठास, आरोग्यकर गुण विशेषता थी।

पारम्परिक किस्मों को, दुर्भाग्य से अक्सर थोक बाज़ार में बहुत कम मान्यता मिलती है, जिससे किसानों को कम पैसे मिलते है। अपनी सीमित भूमि जोत को देखते हुए, किसान प्रति इकाई क्षेत्र में आय को अधिकतम करने को प्राथमिकता देते हैं। कई किसान अब उन फसलों की खेती करना पसँद करते हैं जो साल भर आय दें। ऐसी सोच आम की दुर्लभ किस्मों के संरक्षण को और खतरे में डालती हैं।

अतीत में, कई बागों में एक किलोग्राम तक वजन वाली किस्में दिखाई देती थीं, इनमें से एक "हाथी झूल" है। ऐसी अधिकाँश किस्में गायब हो गई हैं, सामुदायिक प्रयास अभी भी शेष को संरक्षित कर सकते हैं। अचार बनाने में उनके मूल्य के कारण कुछ किस्में बगीचे में जीवित रहने में कामयाब रही हैं, लेकिन कम उपयोग और सीमित व्यावसायिक मूल्य के कारण वे भी धीरे-धीरे समाप्त हो गईं।

Also Read: कहीं आप भी तो नहीं खा रहे हैं कैल्शियम कार्बाइड में पके आम? आईसीएआर-सीआईएसएच ने मलिहाबाद, संडीला, शाहाबाद और आम आनुवंशिक संसाधनों से भरपूर अन्य क्षेत्रों से आम की किस्मों को इकट्ठा कर संरक्षित करने का काफी काम किया है। हालाँकि इन किस्मों की सँख्या में चल रही गिरावट से निपटने के लिए बड़े पैमाने पर संरक्षण के प्रयास की ज़रूरत है।


इसकी कुंजी सामूहिक सामुदायिक प्रयासों में निहित है, जिसमें प्रत्येक किसान कम से कम एक अनूठी किस्म के पौधे लगा कर संरक्षित करने की जिम्मेदारी लेता है। ये नज़रिया सीमित संसाधनों के उपयोग से हज़ारों किस्मों के संरक्षण में योगदान देगा। संरक्षण को बढ़ावा देने के लिए, जनता के बीच दुर्लभ किस्मों की खपत को प्रोत्साहित करना और शहरों में बाज़ार स्थापित करना जरुरी है। मेहनती किसानों के लिए सुरक्षित बाज़ार उपलब्धता और उचित रिटर्न सुनिश्चित करना महत्वपूर्ण है।

मलिहाबाद के तमाम आम का संरक्षण न केवल सांस्कृतिक और किस्मों के स्वाद की समृद्धि को बनाए रखने के लिए जरुरी है बल्कि आमों की आनुवंशिक विविधता को संरक्षित करने के लिए भी महत्वपूर्ण है। यह आनुवंशिक विविधता भविष्य के प्रजनन कार्यक्रमों और जलवायु परिवर्तन संबंधित शोध में महत्वपूर्ण भूमिका निभाती है।

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